मोदी सरकार ने छीनी आदिवासियों की सीट: आइपीएफ
प्रधानमंत्री को भेजा पत्र, चलायेंगे हस्ताक्षर अभियान
लखनऊ: मोदी सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासी समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुपालन में बने ‘संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा) 2013‘ को 4 जुलाई 2014 को राज्यसभा में वापस लेकर आदिवासी समाज के साथ बड़ा अन्याय किया है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने वाले हमारे देश में आदिवासी समाज को राजनीतिक प्रतिनिधित्व से भी वंचित कर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला किया है। सरकार की इस कार्यवाही के कारण उत्तर प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनावों में आदिवासी जातियांे के लिए विधानसभा में एक भी सीट आरक्षित नहीं हो पायेगी। यह आरोप आज आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) के संगठन महासचिव दिनकर कपूर ने लगाया। उन्होंने इस सम्बंध में प्रधानमंत्री को पत्र भेजकर उनसे अपेक्षा की है कि उनकी सरकार अपनी स्थिति पर पुर्नविचार करेंगी और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करते हुए उ0 प्र0 के आदिवासी समाज के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा व उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए 18 जुलाई 2016 से शुरू हो रहे मानसून सत्र में इस विधेयक को संसद में प्रस्तुत करके उसे पारित करायेगी। जिससे भारत निर्वाचन आयोग व परिसीमन आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप उ0 प्र0 विधानसभा की दुद्धी व ओबरा विधानसभा सीटें आदिवासी समाज के लिए आरक्षित हो सकंेगी। उन्होंने पत्र में प्रधानमंत्री से यह भी उम्मीद की है कि उनकी सरकार कोल समेत सभी आदिवासी जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के लिए कार्यवाही करेगी ताकि लोकसभा में भी उत्तर प्रदेश के आदिवासी समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेगा।
प्रधानमंत्री को भेजे पत्र को प्रेस को जारी करते हुए दिनकर कपूर ने कहा कि यदि भारत सरकार आदिवासी समाज के साथ न्याय नहीं करती तो आइपीएफ सर्वोच्च न्यायालय में अवमानना याचिका दाखिल करेगा और हस्ताक्षर अभियान चलाकर इस क्षेत्र से लाखों हस्ताक्षर युक्त पत्र मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय को भेजेगा।
पत्र में कहा गया कि प्रधानमंत्री जी राबट्र्सगंज संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व आपके दल भारतीय जनता पार्टी के आदिवासी मूल के सांसद करते हैं। बाबजूद इसके आपकी सरकार द्वारा सत्ता में आते ही उत्तर प्रदेश के आदिवासियों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए बने ‘संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा) 2013‘ को वापस लेना आदिवासी समाज के साथ बड़ा अन्याय और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने वाले हमारे देश में आदिवासी समाज को राजनीतिक प्रतिनिधित्व से भी वंचित कर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला तो है ही साथ ही यह माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना है।
प्रधानमंत्री को पत्र में अवगत कराते हुए बताया गया कि उत्तर प्रदेश में दसियों लाख की संख्या में गोंड़, खरवार, पनिका, भुइंया, चेरो, बैगा, अगरिया, कोरंवा, थारू, बोक्सा, राजी, जौनसारी, भोटिया, परहिया, सहरिया, पठारी आदि अनुसूचित जनजातियां है। 2003 में इनमें से कई जातियों को भारत सरकार ने अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित किया था, जो 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति की श्रेणी में थीं। यही वजह थी कि लोकसभा व विधानसभा की सीटों के सम्बंध में 2008 में संपन्न हुए राष्ट्रीय परिसीमन में इन जातियों के लिए लोकसभा व विधानसभा में सीटें आरक्षित नहीं की गयीं और दसियों लाख की आबादी वाला आदिवासी समाज राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित रह गया। लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के खिलाफ राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट से जुड़ी आदिवासी-वनवासी महासभा समेत तमाम संगठनों ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय व इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर की थीं। ऐसी ही एक याचिका रिट पेटीशन (सिविल) संख्या 540/2011 वीरेंद्र प्रताप व अन्य बनाम भारत सरकार व अन्य में 10.01.2012 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने इन जातियों के संसद व विधानसभा में राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने हेतु कार्यवाही करने का भारत सरकार और भारत निर्वाचन आयोग को आदेश दिया था। इस आदेश के अनुक्रम में भारत सरकार ने ‘संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन अध्यादेश‘ तीन बार लाया जो बाद में ‘संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक 2013‘ के रूप में दिनांक 14 फरवरी 2013 को राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया और राज्यसभा में बहस के बाद संसद की स्थायी समिति को भेजा गया और मई 2013 में स्थायी समिति ने इस बिल को संसद से पास कराने की संस्तुति की थी। इस अध्यादेश एवं बिल के आलोक में भारत निर्वाचन आयोग और राष्ट्रीय परिसीमन आयोग द्वारा आदिवासी बाहुल्य सोनभद्र जनपद की दुद्धी (अनुसूचित जाति) एवं ओबरा विधानसभा सीटों और राबटर््सगंज (अनुसूचित जाति) संसदीय सीट पर जनसुनवाई आयोजित की और जनसुनवाई व विधिक प्रक्रियायों का समुचित अनुपालन करते हुए दुद्धी (अनुसूचित जाति) एवं ओबरा विधानसभा सीटों को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित करने की प्रबल संस्तुति भारत सरकार को की गयी।
पत्र में प्रधानमंत्री को यह भी बताया गया कि सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली जनपद में लाखों की संख्या में निवास करने वाली कोल जाति समेत धांगर (उरांव), धरिकार और राबटर््सगंज (अनुसूचित जाति) संसदीय सीट में आने वाली चंदौली जनपद की चकिया विधानसभा सीट की नौगढ़ तहसील में रहने वाली गोड़, खरवार, चेरों आदि आदिवासी जातियों को आज तक आदिवासी होने के बाबजूद आदिवासी का दर्जा नहीं मिला है। परिणामतः राबटर््सगंज (अनुसूचित जाति) संसदीय सीट पर आदिवासी जातियों की बहुलता होने के बाबजूद आयोगों ने यह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित नहीं की। यदि सरकार इन जातियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी दे देती है तो उ0 प्र0 की 80 लोकसभा सीटों में भी उ0 प्र0 के आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जायेगा। पत्र में केन्द्र सरकार से उम्मीद की गयी कि वह अपनी स्थिति पर पुर्नविचार कर आदिवासी समाज के साथ हो रहे अन्याय को खत्म करने के लिए 18 जुलाई 2016 से शुरू हो रहे मानसून सत्र में ‘संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा) 2013‘ को संसद में प्रस्तुत करके उसे पारित करायेगी।