नई दिल्ली। 19 मई ने असम की तस्वीर साफ कर दी है। बीजेपी पहली बार राज्य की सत्ता पर काबिज होने का आशीष जनता ने दे दिया है। बीजेपी की जीत के साथ ही कांग्रेस और उसके मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया है। राज्य में बीजेपी को 81+ सीटों पर बढ़त मिली है, कांग्रेस 27 सीटों पर आगे हैं। गोगोई और कांग्रेस की इस हार की कई वजहें रही हैं। असम की मूल आबादी के अंदर फूट रहा गुस्सा, विकास के पथ से विमुख राज्य, बीजेपी की मजबूत दावेदारी और सर्वानंद सोनोवाल जैसा अहम चेहरा।
इन सब फैक्टर्स के अलावा राज्य में कांग्रेस की हार का सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर रणनीतिक कौशल में खामी को गिना जा सकता है। चुनावी चौखट पर पार्टियां किस तरह चाल चलती हैं, यही उन्हें सत्ता की चाबी दिलाने का काम करता है। ध्यान रहे, बिहार में इसी कौशल ने लालू-नीतीश को सत्ता में वापसी का मौका दिया था। लेकिन उन्हीं नीतीश की कोशिश को असम में कांग्रेस के सीएम तरुण गोगोई ने धूल धूसरित करने का काम कर दिया।
बिहार में नीतीश की चुनावी रणनीति को अंजाम देने वाले प्रशांत किशोर ने असम में अंतिम दम तक कोशिश की कि एआईयूडीएफ के बदरुद्दीन अजमल को कांग्रेस के साथ लाया जा सके। यह निश्चित ही नीतीश की पहल पर किया गया होगा लेकिन उन्हें इसमें असफलता ही हाथ लगी।
बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस और नीतीश दोनों चाहते थे कि एआईयूडीएफ नेता बदरुद्दीन अजमल के साथ गठबंधन हो जाए, लेकिन गोगोई ने इसे खारिज कर दिया। गोगोई का कहना था कि बदरुद्दीन अजमल और बीजेपी के बीच पहले से ही गुप्त समझौता हो चुका है। गोगोई ने कहा था कि बदरुद्दीन की पार्टी गठबंधन में 53 सीटें चाहती है जो कतई मंजूर नहीं है। असम की 126 सीटों में से पिछली बार कांग्रेस को 78 और बदरुद्दीन को 18 सीटें हासिल हुई थीं।
बिहार की लड़ाई में जीतनराम मांझी बस बीजेपी के लिए ही अहम थे, लेकिन असम में बदरुद्दीन अजमल सभी के लिए जरूरी थे। दोनों में फर्क ये है कि मांझी अपने दावों में फेल हो चुके हैं जबकि बदरुद्दीन खुद को साबित कर चुके हैं। बीजेपी को मुस्लिम वोट छिटकाने का भरोसेमंद चेहरा बदरुद्दीन के रूप में मिला। नतीजा, कांग्रेस कमजोर हुई और उसकी झोली में आई एक और शिकस्त।