जर्मन बेकरी धमाका — फिर सवालों के घेरे में न्यायपालिका व जांच एजेंसियां
अबू बकर सब्बाक़ सुबहानी (एपीसीआर)
13, फरवरी 2010 में पुणे एक बड़े बम धमाके का निशाना बना था। यह धमाका कोरेगांव पार्क स्थित जर्मन बेकरी नामक रेस्टोरेन्ट में हुआ था। इस घटना में 17 लोग मारे गए 58 लोग घायल हुए थे। जांच की जि़म्मेदारी पुलिस से एटीएस को हस्तानांतरित कर दी गई। एटीएस ने 7, सितम्बर को पुणे रेलवे स्टेशन से हिमायत बेग को गिरफतार दिखाया। यूएपीए कानून के तहत हिमायत बेग को एक महीना की पुलिस रिमांड पर एटीएस को दे दिया गया। एटीएस ने 4 दिसम्बर 2010 को हिमायत बेग के खिलाफ पुणे सेशन कोर्ट में चार्जशीट दाखिल कर दी। हिमायत बेग के अनुसार उसकी गिरफतारी 18, अगस्त 2010 को उदगीर से हुई और उसको 20 दिन तक गैरकानूनी हिरासत में टार्चर किया गया।
दूसरी तरफ 21, नवम्बर को स्पेशल सेल दिल्ली ने कतील सिद्दीकी को आनंद विहार बस स्टेशन से जाली नोट और विस्फोटक सामग्री के साथ एफआईआर नम्बर 54/2011 के तहत गिरफतार किया जबकि कतील सिद्दीकी के अनुसार उसका तीन दिन पहले 19, नवम्बर 2011 पहाड़गंज से अपहरण किया गया था जब वह अपनी पत्नी और बच्ची को डाक्टर के पास ले जा रहा था। हिरासत के दौरान एफआईआर नम्बर 65/2010 जामा मस्जिद फायरिंग और एफआईआर नम्बर 66/20ं10 जामा मस्जिद कार बम धमाका का भी आरोपी बना दिया गया। इन तीनों आरोपों के तहत लगातार तीन महीने की पुलिस रिमांड मिलती रही। दिल्ली स्पेशल सेल की रिमांड खत्म होने के तुरंत बाद सेंट्रल क्राइम ब्रांच बंगलुरू (सीसीबी) ट्रांजि़ट रिमांड पर कतील सिद्दीकी को चिन्ना स्वामी स्टेडियम बम धमाके के आरोप में बंगलुरू ले गई। स्टेडियम में एक ही समय में एक ही थाना के अधिकार क्षेत्र में पांच धमाके हुए फिर भी पांच अलग अलग एफआईआर 92 से 96 (2010) दर्ज की गयी जिनमें अलग अलग चार्जशीट दाखिल की गई। चार्जशीट करीब 30 हज़ार पेज की है। विधि अनुसार चार्जशीट मुल्जि़म की भाषा में उपलब्ध करना अनिवार्य है फिर भी बंगलुरू सीसीबी ने कन्नड़ भाषा में चार्जशीट उपलब्ध करवाई जो आरोपी को इंसाफ से वंचित करने परम्परा बन गई है।
22, नवम्बर 2011 को महाराष्ट्र एटीएस के अधिकारियों के निर्देश पर एटीएस अधिकारी दिनेश कदम कतील सिद्दीकी से तफतीश करने मुम्बई से दिल्ली आए। पुछताछ के दौरान कतील सिद्दीकी ने स्पेशल सेल और बंगलुरू सीसीबी को दिए गए बयानों का उल्लेख किया, अपने और यासीन भटकल के लिप्त होने की पुष्टि की, जांच पूरी करने के बाद इन्सपेक्टर दिनेश कदम वापस मुम्बई गए। हिमायत बेग के खिलाफ 4, दिसम्बर 2010 को ही एटीएस अपनी चार्जशीट दाखिल कर चुकी थी। इसलिए एक नई एफआईआर 32/2011 दिनांक 9, फरवरी 2011 के तहत कतील सिद्दीकी के खिलाफ एक नया मुकदमा कायम किया गया जिसके अनुसार 13, फरवरी 2010 को कतील सिद्दीकी ने दगरू सेठ हलवाई गणेश मंदिर में बम रखने की कोशिश की थी जिसमें वह नाकाम रहा था। यह एफआईआर पूरे 22 महीने बाद दर्ज हुई थी। एफआईआर दर्ज करने के करीब छः महीने बाद 2, मई 2012 को एटीएस महाराष्ट्र कतील सिद्दीकी को अपनी तफतीश के लिए पुलिस रिमांड पर लेती है। इस केस में दिनेश कदम शिकायतकर्ता और एसीपी समद शेख आईओ (विवेचक) हैं। 4, जून 2012 को दिल्ली न्यायालय से पेशी वारंट जाता है, 8, जून को कतील सिद्दीकी का दिल्ली आना तय होता है। फिर भी बहुत रहस्यमय तरीके से पुणे की यरावदा जेल की हाई सेक्योरिटी ज़ोन की अंडा सेल में कतील सिद्दीकी की हत्या हो जाती है। फिर भी इस हत्या के कुछ रहस्य कतील सिद्दीकी के साथ दफन नहीं हो सके जो मुम्बई की अदालत में बहस का विषय बने हुए हैं।
दिल्ली स्पेशल सेल ने अपनी चार्जशीट (एफआईआर नम्बर 54/2011) के पेज 11, पेरा नम्बर 3 में कतील सिद्दीकी के खिलाफ जर्मन बेकरी ब्लास्ट पुणे और चिन्ना स्वमी स्टेडियम बंगलुरू धमाकों आरोप लगाया है। सेंट्रल क्राइम ब्रांच बंगलुरू (सीसीबी) ने भी अपनी चार्जशीट (एफआईआर 92 से 96/2010) दिनांक 11, जूलाई 2012 में कतील सिद्दीकी के खिलाफ जर्मन बेकरी ब्लास्ट पुणे और चिन्ना स्वामी स्टेडियम बंगलुरू धमाकों का फर्द जुर्म लगाया। फिर भी पुणे सेशन कोर्ट में एटीएस महाराष्ट्र ने न तो उन तथ्यों का उल्लेख किया और न ही कतील सिद्दीकी का इकबालिया बयान प्रस्तुत किया जो उसने इन्सपेक्टर दिनेश कदम को दिया था।
हिमायत बेग के बारे में एटीएस की तरफ से दाखिल चार्जशीट के अनुसार ’’हिमायत बेग लश्करे तोयबा का कैडर है जो आईएम के सक्रिय सहयोग से भारत सरकार का तख्ता पलट कर इस्लामी शासन लाना चाहता था। इसलिए यह मार्च 2008 में कोलम्बा (श्रीलंका) जाता है। जहां साजि़श तैयार करने के मकसद से अबू जिंदाल, फैयाज़ कागज़ी और भटकल भाइयों के साथ हिमायत बेग एक महत्वपूर्ण मीटिंग में शामिल होता है। साजि़श रची जाती है, हिमायत करेंसी लेकर भारत वापस आता है, अपना गांव छोड़कर उदगीर चला जाता है, उदगीर में हिमायत का नाम यूसुफ सर में बदल जाता है। इसके अलावा वह एक इंटरनेट कैफे (ग्लोबल इंटरनेट कैफे) शुरू करता है साथ में अलसबा कोचिंग सेंटर में बच्चों को ट्यूशन के साथ साथ क्षेत्र में लश्करे तोयबा के प्रोग्राम में हसन के नाम से व्याख्यान देता है। जनवरी 2010 में यासीन भटकल के साथी हिमायत के कैफे में आते हैं, जर्मन बेकरी की साजि़श तैयार करके वापस चले जाते हैं। 8 से 11, फरवरी तक हिमायत और यासीन मुम्बई में रहते हैं। वहां से 1100 नोकिया माडेल फोन खरीदते हैं।
11, फरवरी की शाम वापस उदगीर के लिए निकलते हैं, 12, फरवरी की रात ग्लोबल कैफे में बम तैयार करके 13, फरवरी की सुबह दोनों तैयार किया हुआ बम लेकर प्राइवेट कार से उदगीर से लातूर आते हैं (जो तीन घंटे की यात्रा है)। फिर वहां से महाराष्ट्र स्टेट ट्रांस्पोर्ट की बस से पुणे आते हैं। पुणे रेलवे स्टेशन से आटो रिक्श द्वारा जर्मन बेकरी पहुंचते हैं (यह आटो रिक्शा ड्राइवर शिवाजी गोरे जो कि अभियोजन का गवाह नम्बर 93 है, पांच मिनट की दूरी तय करने वाले यात्रियों की शकल दो साल तक याद रखता है)। यासीन अंदर जाता है, हिमायत बेग मोटर साइकल से वापस औरंगाबाद मात्र चार घंटों में आ जाता है। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि यह यात्रा कम से कम सात घंटे की है। इसके अलावा इस दौरान हिमायत बेग के दोनों ही मोबाइल सीडीआर रिपोर्ट के अनुसार औरंगाबाद में ही रहे हैं।
इस केस में कुछ महत्वपूर्ण कानूनी और सैद्धान्तिक अनियमितताएं सामने आती हंै जिनकी न्यायालय और जांच एजेंसियां अनदेखी करती हुई प्रतीत होती हैं जो बंहुत ही अफसोस जनक हैं। मिसाल के तौर पर एटीएस महाराष्ट्र की चार्जशीट के अनुसार साजि़श कोलम्बों में तैयार की गई। कोलम्बों में कहां हुई, दिनांक, स्थान, गवाह सबूत किसी चीज़ का उल्लेख नहीं। केवल हिमायत बेग के पासपोर्ट पर कोलम्बो की मुहर मौजूद है। वहां कोई जांच नहीं हुई। इस स्थिति में बुनियादी सिद्धान्त जो कि क्रिमनल प्रोसीजर कोड की धारा 188 में विस्तार के साथ बयान की गई है कि ’’यदि कोई भी अपराध या अपराधिक साजि़श भारतीय नागरिक द्धारा विदेश में की जाती है तो उस अपराध की जांच या अदालती कारवाई से पहले केंद्र सरकार से विधिवत अनुमति लेना अनिवार्य है। कोई भी अदालत केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना किसी तरह की जांच या अदालती व विधिक कारवाई के लिए सक्षम नहीं है’’। लेकिन इस केस में अब तक केंद्र सरकार की तरफ से किसी भी तरह की अनुमति प्राप्त नहीं की गई। साथ ही अब्दुल रज़ा मेमन बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र केस में सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले में निर्धारित सिद्धान्तों और नियमों की भी अदालत ने अनदेखी करदी।
जर्मन बेकरी के धमाका से दो साल पहले 2008 में हमारी संसद ने एनआईए एक्ट पास किया था। एनआईए एक्ट की धारा 6 की उपधारा 3 के तहत राज्य सरकार द्वारा प्राप्त जानकारियों को सामने रखकर केवल केंद्र सरकार ही को यह अधिकार प्राप्त है कि तय करे कि सम्बंधित मामला यूएपीए के तहत अपराध की श्रेणी में आएगा या नहीं (अर्थात यूएपीए राज्य सरकार या संस्थाएं लागू नहीं कर सकती बल्कि यह केवल केंद्र सरकार का अधिकार क्षेत्र है)। इस मामले में केंद्र सरकार की तरफ से यूएपीए लगाने की अनुमति प्राप्त नहीं की गई।
एनआईए एक्ट की धारा 6 की उपधारा 4 और अन्य उपधाराओं के अनुसार ’’यदि केंद्र सरकार इस अपराध में यूएपीए की किसी भी धारा के प्रयोग की अनुमति देती है तो केवल राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ही उस केस की जांच करने में सक्षम होगी न कि कोई अन्य प्रान्तीय या केंद्रीय एजेंसी बल्कि यह केस स्वतः एनआईए के अधिकार क्षेत्र में चला जाएगा और उससे सम्बंधित तमाम दस्तावेज़ों को एनआईए के हवाले कर दिया जाएगा। दूसरी स्थिति में यह केस यूएपीए के तहत दर्ज करने की अनुमति मिलने तक सम्बंधित पुलिस स्टेशन का प्रभारी ही इस केस की विवेचना करेगा।’’ इन तमाम कानूनी पहलुओं को दरकिनार कर दिया गया जो हमारे नियमों व कानून के तहत बाध्यकारी थे। इसलिए एटीएस के द्वारा तैयार की गई चार्जशीट ही गैर कानूनी थी।
यूएपीए कानून की धारा 2 की उपधारा डी के तहत इस कानून के तेहत दर्ज मुकदमों की सुनवाई का अधिकार केवल एनआईए की विशेष अदालत को ही होगा, किसी दूसरी स्थिति में सेशन कोर्ट के जज का अधिकार क्षेत्र होगा। इसके बावजूद हिमायत बेग के मामले में सभी अदालती या पुलिस रिमांड के आदेश मजिस्ट्रेट ने दिए। जबकि यह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर और पूरी तरह नियमों के विरुद्ध था।
एटीएस महाराष्ट्र का दावा है कि उसके पास ’’होटल ओ’’ के सीसीटीवी कैमरे से ली गई वीडियो है जिसमें यासीन भटकल को बम रखते या ले जाते देखा गया है। एनआईए के बार बार फुटेज की मांग करने के बाद भी न तो वह वीडियो अब तक उसके सुपुर्द की गई है जो कि एनआईए एक्ट की धारा 6 की उपधारा 6 के अनुसार अनिवार्य थी और न ही बचाव पक्ष के वकील को दी गई जो कि उसका अधिकार था। वीडियों मीडिया को भी नहीं दी गई जो कि हमारी पुलिस और एजेंसियों परंपरा और पसंदीदा तरीका रहा है। यहां यह बात भी अहम है कि जर्मन बेकरी और होटल ओ के बीच सौ फीट चैड़ा हाईवे है। इसके अलावा जर्मन बेकरी के चारो तरफ साढ़े सात फीट ऊंची दीवार है जिसके बाद भी अंदर का वीडियो होटल के कैमरे से तैयार होना एक काल्पनिक दावा मालूम होता है जिसका समर्थन पुलिस की कार्यप्रणाली भी करती है।
आरडीएक्स की बरामदगी का दावा किया गया था जिसकी शकल पाउडर बताई गई थी। इसी आधार पर विस्फोटक अधिनियम की धारा 7 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया और यही दावा अदालत में भी किया गया। इस तथ्य को पुलिस और अदालत ने बेख्याली में स्वीकार भी कर लिया जबकि आरडीएक्स हमेशा जमी हुई शकल में हो सकता है। इस तरह अदालत ने अपनी ग़फलत या भेदभाव की आड़ में पुलिस की बातों को आंख बंद करके स्वीकार कर लिया। इसके अत्रिक्त जहां से आरडीएक्स बरामद दिखाया गया है वह एक खुला हुआ बग़ैर ताले वाला कमरा था जहां कोई भी आ जा सकता था। जबकि विस्फोटक अधिनियम की आवश्यक शर्त है कि उसका कब्ज़ा निश्चित और पूरी जानकारी के साथ हो। इसके अलावा अभियोजन के गवाह के अनुसार हिमायत बेग मस्जिद में ही रहता था।
नोकिया 1100 के प्रयोग को साबित करने में भी अभियोजन पूरी तरह नाकाम रहा है और न सीएफएसएल की महत्वपूर्ण रिपोर्ट को ही अहमियत दी गई। हिमायत 13, फरवरी 2010 को सुबह साढ़ आठ बजे से साढ़े नौ बजे के बीच औरंगाबाद में ही था। इसी दावे को पुख्ता करने के लिए सरकारी गवाह नम्बर 96 का बयान भी काफी था, गवाह नम्बर 97 का बयान भी सरकारी कहानी को गलत साबित कर रहा है। फिर भी विद्धान न्यायधीश ने अनदेखी कर दिया।
आठ हज़ार यूरो करेंसी का क्या हुआ, करेंसी कहां बदली गई, किस इस्तेमाल में आई, क्या इस आरोप का कोई गवाह या सबूत मौजूद नहीं है? एटीएस के साथ साथ हमारे सम्मानित जज ने भी मौन धारण करके कर्तव्य का निर्वाह कर दिया जो जनता की नज़र में संदिग्ध और भेदभावपूर्ण है।
यासीन भटकल उदगीर आया, ग्लोबल कैफे में बम बनाया गया, इस आरोप का भी न तो कोई गवाह है और न किसी तरह का कोई सबूत अभियोजन के वकील प्रस्तुत करने में सफल हुए। पुलिस की कहानी के अनुसार हिमायत बेग और यासीन भटकल उदगीर से प्राइवेट कार द्वारा लातूर पहुंचे। कौन सी कार थी, किसकी कार थी, कैसी थी, कार का मालिक कौन था? किसी भी तरह की कोई जानकारी या विस्तृत मालूमात पुलिस या अदालत के पास नहीं है, और न ही अदालत में कोई गवाह या सबूत पेश किया गया।
लातूर से पुणे किस बस से गए, ग्यारह घंटे की यात्रा की, कोई गवाह न मिल सका, कोई गवाह या सबूत पेश नहीं किया जा सका। लेकिन पुणे बस स्टैंड से जर्मन बेकरी तक की कुछ मिनटों की दूरी तय करने वाला आटो ड्राइवर दो साल बाद भी हिमायत बेग और यासीन भटकल को पूरी तरह पहचानने में कामयाब रहा। अदालत को कोई आशंका या आश्चर्य नहीं हुआ।
इस पूरे केस की सुनवाई के दौरान न तो बचाव पक्ष के किसी गवाह को बुलाया गया और न ही बचाव पक्ष के किसी वकील की गवाही हो सकी फिर भी अदालत को कोई चिन्ता नहीं हुई। अभियोजन के अनुसार भी वह प्रत्यक्ष रूप से धमाके में लिप्त नहीं था। हालांकि साजि़श में शामिल था। इन सभी तथ्यों के बावजूद केवल परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर हमारी अदालत ने पांच बार फांसी और छः बार उमर कैद का फैसला सुना दिया।
इस पूरे केस में पहली चिन्ता की कड़ी वह थी जब एक मराठी समाचार पत्र ’’दैनिक सकाळ’’ ने 25, मई 2010 के अंक यह दावा किया कि जर्मन बेकरी बम धमाका का मास्टरमाइंड व प्लान्टर अब्दुस्समद गिरफतार हो गया , केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदाम्बरम ने इस शानदार कामयाबी पर तारीफ के पुल बांध दिए और मुम्बई पुलिस कमिश्नर ने पदक और कैश इनाम की बारिश कर दी। बहर हाल अब्दुस्समद की 28 दिनों की पुलिस रिमांड होती है, इसी दौरान अब्दुस्समद के पिता मीडिया में एक वीडियों पेश करते हैं जिसमें अब्दुस्समद को धमाके वाले दिन 13, फरवरी 2010 को शादी में शामिल दिखाया गया था। इसके बाद एटीएस ने माफी के साथ अब्दुस्समद को रिहा कर दिया। रिमांड के दौरान अब्दुस्समद को टार्चर करते समय जो इलेकट्रिक शाक और नारको टेस्ट के लिए जो इंजेक्शन दिए गए थे तीन साल बाद भी वह अपना असर दिखाते रहे। यह अब्दुस्समद हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात द्वारा भारत के हवाले किए गए गिरफतार यासीन भटकल (डीएनए, 31, अगस्त 2013) का सगा छोटा भाई है। अगर यह कहा जाए कि विद्धान जज अपना फैसला सुनाते समय क्रिमनल जस्टिस सिस्टम और इंडियन एविडेंस एक्ट के आधार भूत सिद्धान्तों की अनदेखी करते हुए कई गवाहों के बयानों में से कुछ तथ्यों को अपने विवके से नकारते गए और कुछ बिंदुओं को आंख बंद करके अपने फैसले का आधार बनाते गए, यह निश्चित रूप से कुछ संदेह को जन्म देने की गुंजाइश रखता है। भारत के नियम कानून की रोशनी में हर कोई दावा कर सकता है कि हिमायत बेग को केवल और केवल कल्पना और परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर पांच बार फांसी और छः बार सश्रम अजीवन कारावास और अन्य 22 वर्ष सश्रम कारावास की सज़ा का यह हास्यास्पद फैसला हमारी अदालती व्यवस्था और न्याय की आत्मा के हवा में उड़ जाने की आशंका को यकीन में बदलने पर मजबूर करता महसूस होता है।
18, अप्रैल 2013 को पुणे सेशन कोर्ट ने जब यह फैसला सुनाया तो हिमायत बेग ने राते हुए अदालत से कहा था ’’अगर धमाके के दिन सत्तरह व्यक्तियों का खून हुआ था आज मैं अट्ठारहवां व्यक्ति हूं जो इस धमाके की भेंट चढ़ाया गया हूं’’।
विगत 17, जूलाई को एनआईए ने देश में इंडियन मुजाहिदीन की कथित विधि विरुद्ध गतिविधियों के सिलसिले में दिल्ली की एक अदालत में अपनी 57 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की जिसमें यासीन भटकल का नाम जर्मन बेकरी धमाका पुणे में बतौर मुल्जि़म नामज़द किया लेकिन उस पूरी चार्जशीट में हिमायत बेग का उल्लेख नहीं है जो कि इंडियन मुजाहिदीन के नाम पर गिरफतार लोगों में पहला सज़ायफता व्यक्ति है। इस चार्जशीट में एनआईए ने दिल्ली पुलिस, बंगलुरू पुलिस, राजस्थान एटीएस और अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के द्वारा की गई इंडियन मुजाहिदीन के तमाम कथित बम धमाकों की जांच का उल्लेख किया गया लेकिन महाराष्ट्र एटीएस के द्वारा जर्मन बेकरी धमाका पुणे या मुम्बई 13/7 केस की किसी भी विवेचना की अहमियत या उल्लेख को जगह नहीं दी। कतील सिद्दीकी जो कि दिल्ली व बंगलुरू पुलिस की चार्जशीट में जर्मन बेकरी केस का आरोपी था, महाराष्ट्र की पुणे जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में कत्ल कर दिया गया। यासीन भटकल ने भी अपनी गिरफतारी के बाद एनआईए को दिए गए बयानों में हिमायत बेग की किसी भी भूमिका का इनकार करके महाराष्ट्र एटीएस व पुणे सेशन कोर्ट की कार्यप्रणाली पर संदेह पैदा कर दिया है।
यहां हिमायत बेग के उस पत्र का उल्लेख भी कम महत्वपूर्ण नहीं होगा जो उसने जेल से गत 31, अगस्त 2013 को हाईकोर्ट मुम्बई के न्यायधीशों को लिखा है। हिमायत बेग ने अपने पत्र में महाराष्ट्र एटीएस द्वारा अपनी गैरकानूनी गिरफतारी और टार्चर का उल्लेख किया है जबकि वह बीस दिन की गैरकानूनी हिरासत में था। इस दौरान उसके गुप्तांगों पर करेंट लगाया गया, अमानवीय व्यवहार किया गया, सादे पन्नों पर हस्ताक्षर लिए गए, जख्मों पर खुद ही एटीएस के लोगों ने थाने में टांके लगाए, इनकाउंटर की धमकियां दी गयीं, ए रहमान के रूप में एटीएस ने उसे अपना वकील करने पर मजबूर किया, ए रहमान के वकालत नामे पर एटीएस के लोगों ने ही ज़बरदस्ती उसके हस्ताक्षर करवाए जो उससे केवल एक बार ही मिले। वकील ने बार बार कहने के बावजूद चार्जशीट उसको नहीं दी और न ही उसके बताए हुए बिंदुओं को अदालत में कभी पेश किया। हिमायत बेग ने न्यायिक व्यवस्था पर अपनी आस्था की दुहाई देते हुए हाईकोर्ट के सम्मानित न्यायधीशों से विन्ती की है कि पूरे केस की फिर से एनआईए से जांच करवाई जाए और केस की नए सिरे से सुनवाई के दौरान हाजि़र हो कर अपनी बात कहने का अवसर दिया जाए।
यह पूरा केस आज हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था, जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली, समाज के जि़म्मेदार व्यक्तियों के व्यवहार के परिपेक्ष्य में कई सवालों को जन्म देता है। आज हमें स्वंय तय करना होगा कि हम किस दिशा में अपने देश और उसके महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका को ले जा रहे है। क्या इन हालात में हमारे कंधों पर भी जि़म्मेदारियां आती हैं? हम अपने देश के निर्माण या विध्वंस में से किस जि़म्मेदारी का चयन करना अपने लिए पसंद करते हैं?