अनुशासन, दण्ड और मौन
‘‘आज की दुनिया में पागल एवं स्वस्थ एक अजीब मौन की अवस्था में रहते हैं। लाखों पागलों, गरीबों, भिखारियों और बेरोजगारों को किसी न किसी कारण जेलों में ठूंस दिया जाता है।’’
प्राचीन काल में जो लोग सत्ता पर काबिज होते थे, एक सार्वजनिक उत्सव में खुले आम किसी चैराहे पर अपराधी को खड़ा करते थे। उसके शरीर को नोचते थे। मांस से खून बहता था। अपराधी की त्रासदी अमानवीय थी। कभी उसे जलाते थे, कभी उसका सिर काट देते थे। इस वीभत्स दृश्य को देखने के लिए लोगों का एक बड़ा समूह हाथ बांधे खड़ा दिखाई देता था। लोगों के सामने सता के स्वामी यह स्थापित करते थे कि जिसे यातना दी जा रही है, जो खून से लथपथ है वह प्रथम श्रेणी का अपराधी है। उसके अपराध को कानून ने प्रमाणित किया है। अपराधी को दी जाने वाली ये यातनायें राजीनतिक कर्मकाण्ड मात्र थी। इन यातनाओं द्वारा यह स्थिापित किया जाता था कि जो लोग सत्ता में हैं उनके पास शक्ति है। शक्ति का अस्तित्व होता है और यातना भी उसकी अभिव्यक्ति होती है। यदि शक्ति कहीं उसके तंत्र स्वरूप में देखना हो यथार्थ में समझना हो तो इसका सही अवसर सार्वजनिक यातना के उत्सव हुआ करते थे। सत्ता अपने आप में बहुत बडी शक्ति होती थी और वह कुछ भी कर सकती थी। शक्ति पर आधिपत्य पूंजीपतियों का होता था। इसे यह भी कहा जा सकता है कि पूंजीवादी की पूर्व आवश्यकता शक्ति का उपयोग है। केवल शक्ति का आधिपत्य ही पर्याप्त नहीं है। इसकी क्रियान्विति भी आवश्यक है।
बंदीगृह व्यवस्था की वैचारिक घोषणा होने पर भी उसके पीछे जो धारणा थी, वह बराबर सफल रही। वास्तव में पूंजीवाद और सत्ता पर काबिज लोग बराबर यह चाहते थे कि अधीनस्थों पर किसी न किसी प्रकार से प्रशासनिक अनुशासन अवश्य लागू होना चाहिए। यही प्रशासनिक शक्ति है और यह अस्पतालों में भी देखने को मिलती है। आज के आधुनिक समाज में हम कहीं भी देखें। व्यक्ति को उसकी अनुशासनिक तकनीकों का शिकार बना दिया जाता है। इस प्रकार अनुशासित लोगों पर नियंत्रण रखने के लिए एक पूरी सोपानिक व्यवस्था खड़ी हो जाती है।
विद्वानों के अनुसार, आज का संपूर्ण समाज एक प्रकार का कारागृह है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति पर चाहे वह धंधा करता हो, पढ़ता लिखता हो, खेलता कूदता हो, प्रशासनिक नियंत्रण होता है। हम सब इस सामान्य कारागृह के बंदी हैं। पर इस तरह का अनुशासन हमेशा हानिकारक होता है। ऐसी नहीं है। इसके लाभ भी हैं। इस व्यवस्था में जो बंदी कारागृह से बाहर आते हैं वे परिष्कृत मस्तिष्क के होते हैं। सुधरे हुए नागरिक होते हैं। अनुशासित फौजी होते हैं। सफल कामगर होते हैं। इन अनुशासन से निकले हुए व्यक्ति दब्बू नहीं होते उन्हें उठकर काम करने का गुर प्राप्त हो जाता है। यह अनुशासनात्मक शक्ति वस्तुतः पूंजीवाद की उपज है। पूंजीवाद को स्थापित करने के लिए अनुशासनात्मक शक्ति का प्रयोग आवश्यक है। यह पूंजीवाद की पूर्व आवश्यकता है। पूंजीवाद समाज में प्रशासनात्मक अनुशासन का होना उतना ही आवश्यक है जितना कारागृह का अनुशासन। देखा जाए तो समाज में सभी लोग एक सामान्य कारागृह के बंदी हैं और इसमें जिस व्यवस्था या व्यक्ति में जितना ज्ञान है उतना ही वह अनुशासन चलाता है। सार्वजनिक फांसी या मृत्यु से जो क्लासिकल युग में विशेषता थी, आज के कारागृह में बंदी को रखने की जो प्रथा है वह आज सम्पूर्ण आधुनिक समाज में पाई जाती है। कारागृह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके माध्यम से बंदी का बराबर अवलोकन होता है। उस पर निगरानी रखी जाती है। उस पर नियम-उपनियम लागू किए जाते हैं। कारागृह की बड़ी विशेषता यह है कि इस दंड व्यवस्था का केंद्र शरीर न होकर आत्मा या चेतना होती है। 17वीं और 18वी सदी में दंड सार्वजनिक रूप से दिया जाता था तब अपराधी के साथ बड़ी निर्ममता का व्यवहार किया जाता था। कारागृह के आविर्भाव ने दंड देने की संपूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन कर दिया है।
ऐसा व्यक्ति जिसे कानून और रिवाज दूसरे व्यक्ति की संपत्ति मानते हैं। जातिवादी मामलों में उसके कोई अधिकार नहीं होते, वह पूरी तरह चल संपत्ति होता है, कुछ मामलों में कुछ सुरक्षा मिलती है, लेकिन किसी बैल या गधे को भी यही सुरक्षा मिल सकती है। यदि गुलाम को कुछ बराबर के अधिकार मसलन विरासत की संपत्ति प्राप्त है जिससे उसे बेदखल नहीं किया जा सकता तो कुछ मामलों में वह……गुलाम नहीं रह जाता, भूदास हो जाता है। इस तरह गुलामी असमानता का अतिवादी उदाहरण है जिसमें व्यक्तियों के कुछ समूह पूरी तरह या तकरीबन पूरी तरह अधिकार विहीन होते हैं। छुट-पुट तौर पर यह कई कालों और स्थानों पर मौजूद रही है, लेकिन गुलामी व्यवस्था के दो बडे़ उदाहरण हैं, गुलामी पर आधारित पुरानी दुनियां के समान खासकर ग्रीस और रोम तथा 18वीं एवं 19वीं सदी में अमरीका के दक्षिणी राज्य।
सर्वप्रथम प्रत्येक गुलाम की स्थिति एक खास तरह की होती है। किसी स्वतंत्र मनुष्य का जैसे कभी-कभी दूसरे पर अधिकार होता है उसके विपरीत गुलाम पर उसके मालिक का असीमित अधिकार होता है। कम से कम सिद्धांतक मालिक की सत्ता के स्वतंत्र उपयोग पर कोई भी बंधन गुलामी को कम कर देता है जो इसकी प्रकृति के विपरीत है। उसी तरह जैसे रोमन कानून में अपनी संपत्ति के साथ कोई मालिक वह सब कुछ कर सकता था जिसे करने से विशेष कानून उसे रोकते नहीं थे। इसलिए मालिक और गुलाम के बीच संबंध ठीक-ठाक तब व्यक्त होते हैं जब गुलाम को मालिक की जायदाद या संपत्ति कहा जाए। इन शब्दों में अक्सर हमारा पाला पड़ता है। दूसरे, स्वतंत्र व्यक्तियों की तुलना में गुलाम की स्थिति नहीं थी। गुलाम को कोई राजनीतिक अधिकार नहीं प्राप्त थें, वह न तो अपनी सरकार बनाता था, न सार्वजनिक परिषदों में भाग लेता था। इसी के साथ एक दूसरा प्रभाव भी था जो गुलामी को समाप्त की ओर ले जाता है। उसे हम प्राचीन विश्व में सबसे अच्छी तरह खोज सकते हैं। गुलाम के सम्पत्ति संबंधी अधिकारों के विषय के तौर धारणा के, और गुलाम के अधिकारों के हकदार मानव प्राणी के बतौर धारणा के बीच हमेशा एक टकराव रहा है।
प्राचीन लोगों की तुलना में हमारे वर्तमान विमर्श में बहुत बड़ा अन्तर आया है। विमर्श का यह बदला वही आधुनिक समाज को उत्तर आधुनिक समाज बना देता है। अब हम सम्यता को विमर्श से दूसरी तरह से देखते हैं। समाजशास्त्रियों की बहुत बड़ी समस्या अन्य उत्तर आधुनिकतावादी विचारकों की तरह ज्ञान मीमांसा की रही। वे जानना चाहते थे कि ज्ञान का उद्गम क्या है? दूसरे सिद्धांत क्या हैं। इसी खोज में उन्होंने विमर्श की अवधारणा को रखा है। अपने सिद्धांतों में, वैयक्तिक अध्ययनों में उन्होंने ज्ञान और शक्ति के संगठन की चर्चा की। सामाजिक नियंत्रण के क्षेत्र में शक्ति ज्ञान और विमर्श की बहुत बड़ी भूमिका है और इसी पर उत्तर आधुनिक समाज का निर्माण होगा।
ज्ञानोदय काल में मनोरोग विज्ञान का आविर्भाव होता है। अब पागलो का निदान मनोवृत्ति सम्बंधी ज्ञान की सहायता से किया जाने लगा। इतिहास बताता है कि यूरोप में पहली बार पागलों, विक्षिप्तों और उन्मादग्रस्त लोगों को समाज से पृथक करके पागलखानों में रखा जाता था। इससे पहले भिखारी, उच्चक्कों, असामाजिक तत्वों को समाज से पृथक जेलखानों में रखा जाता था। इस पर समाजशास्त्रियों ने पागलों और पागलखानों का वैयक्तिक अध्ययन किया। पागलखानों में पागलों का अवलोकन फिर उनका वर्गीकरण किया गया। जिस अवधि में अध्ययनकर्ताओं के लेख प्रकाशित हुए उसी समय एक हादसा हो गया। एक फ्रांसीसी चिकित्सक फिलिये पिनेल जो बड़े उदारवादी थे, ंने बेस्ेट्रो अस्पताल से 1794 पागलों को उनकी जंजीरों से मुक्त कर दिया। समाजशास्त्रियों ने इस घटना को कोई महत्व नहीं दिया और न ही उन्होंने इसे मानवतावाद और ज्ञानोदय की विजय माना। इनकी दृष्टि में इस चिकित्सक का यह कार्य एक खोखला आदर्शवाद था। जिन पागलों को पागलखाने से रिहा किया गया वे अब नयी प्रकार की बेडि़यों में फंस गए। समाजशास्त्रियों द्वारा पागलों का अध्ययन ज्ञानोदय तक की अवधि तक किया गया।
मौन क्या है? अध्ययनों के अवलोकन से पता चलता हैं कि, प्राचीन काल में पागलपन और कारण एकदम एक दूसरे से जुदा नहीं थें। कारण और पागलपन के बीच में संवाद था। यह कहा जाता था कि पागल व्यक्ति के पागलपन के कारण उसके घर की विषम परिस्थितियाँ थीं। आपसी झगड़े थे, जमीन का विवार था, तात्पर्य यह कि पुनर्जागरण में पागलपन को किसी न किसी कारण या कारणों को घटाते नही। ज्ञान को सामाजिक स्थितियों से जैसा वह निकल सकता है निकलने देते हैं। मनुष्य यानी व्यक्ति की खोजबीन होती हैं। इस का वास्तविकीकरण अर्थात् वस्तुनिष्ठाकरण होता हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को विभाजित कर देती है। एक ओर तो व्यक्ति होता है और दूसरी ओर अधीनस्त मातहत। दलित। मनुष्य का यह विभाजन या तो उसे अंदर तक तोड़ देता है या उसे सीजोफ्रेनिया और सोजोडायनैमिक्स से ग्रसित बताकर समाज से दूर कर देता है या उसे वह एक सामाजिक प्राणी बना देता है इस क्रम में व्यक्ति या तो विक्षिप्त पागल या उन्मुक्त होता है या उसे कोई सामाजिक पहचान, पद दिया जाता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में शक्ति और ज्ञान जुड़ा रहता है।
चिकित्सालयों में रोगी जो भी बयान देता है या अपना दुःख-दर्द सुनाता है। उसके अर्थ को बयान के आधार पर नहीं समझा जा सकता। इसे समझने के लिए इसकी तुलना उन बयानों से करनी पड़ेगी जिन्हें अन्य रोगी देते हैं या चिकित्सा के विमर्श में जो कुछ भी कहा जाता है उससे तुलना करके ही एक विशेष रोगी के रोग को समझा जा सकता है। इसे समझने के लिए इसकी तुलना उन बयाानों से करनी पड़ेगी जिन्हें अन्य रोगी देते हैं या चिकित्सक के विमर्श में जो कुछ कहा जाता है उससे तुलना करके ही एक विशेष रोगी के रोग को समझा जा सकता है।
आज की दुनिया में पागल और स्वस्थ एक अजीब मौन की अवस्था में रहते हैं। दोनों के बीच में किसी तरह का संवाद नहीं है। समाजशास्त्रियों का ज्ञान और शक्ति का प्रबंध देखा जाए तो एक क्रांतिकारी प्रबंध है। इनके अध्ययन बताते हैं कि लाखों पागलों, गरीबों, भिखारियों और बेरोजगारों को किसी न किसी कारण जेलों में ठूंस दिया जाता है। इसका कारण स्पष्ट है, अमीर समाज इन लोगों के साथ रहना अनुचित समझता है। उच्च एवं मध्यम वर्ग के व्यक्ति को दरिद्र-दलितों के साथ एक आसन पर बैठना पसंद नहीं है। ऐसी स्थिति में वह अपने विशिष्ट ज्ञान से अर्जित शक्ति के माध्यय से इन अनचाहे व्यक्तियों को जेल भेज देता है। पागलपन और विक्षिप्त लोगों के जेल भेजने के कारण कुछ भी हो सकते हैं। लेकिन ये कारण सही और उचित इसलिए हैं कि इसे उन लोगों ने किया है जो इस क्षेत्र में दक्ष है, ज्ञानी है, माननीय हैं। यदि पागलपन की व्याख्या मनोरोग वैज्ञानिक करता है या इस अर्थ में उच्च वर्ग के लोगों के साथ अपराध की व्याख्या न्यायाधीश करता है तब उसे कौन चुनौती दे सकता है। व्याख्याकार चाहे मनोरोग चिकित्सक हो या कानून ये सब शक्तिशाली हैं क्योंकि इनके पास प्रमाणित ज्ञान है।