शासकों की शरारत और जनशोषण
‘‘लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सुरक्षार्थ भ्रष्टाचारी विनाश अधिनियम बनना चाहिए’’
समाज मंे प्रतिष्ठित समझे जाने वाले शासकों-प्रशासकों द्वारा अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दहशत फैलाकर शरारत की जाती है। इनकी शरारत को सामान्यतः जनता द्वारा गंभीरता से नहीं लिया जाता है क्योंकि इनकी शरारतों के प्रति शरातियों से जनता की मनोवृत्ति साधारण शरारत से भिन्न्ा होती है, यद्यपि इनकी शरारत समाज एवं राष्ट्र के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध होती है।
भारत में लोकतान्त्रिक समाजवादी व्यवस्था के आदर्श को स्वीकार किया गया है। इसलिए भारतीय संविधान के मूल अधिकारों और राज्य की नीति के निर्देशक, दोनों का समावेश किया गया है। मूल अधिकार लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रतीक है और निर्देशक सिद्धान्त समाजवादी व्यवस्था के। भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रमाण यह है कि भारतीय प्रशासन जनता के प्रतिनिधियों के निर्देश तथा नियंत्रण में चलाया जाता है लेकिन सरकारी कर्मचारी नहीं बदलते है। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की मान्यता यह भी है कि जनता एवं सरकारी कर्मचारियों के आपसी सम्बंध मधुर तथा सहयोग पूर्ण हो।
लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्था में यह अपेक्षी की जाती है कि बडे़-बड़े उद्योगपतियों को विशेष स्थान प्रदान नहीं किया जाएगा। लोकतांत्रिक समाजवादी राज्यव्यवस्था के आदर्श प्राप्त करने के लिए जहाँ एक ओर कानून के शासन तथा धर्म निरपेक्षता को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है वहीं दूसरी ओर पिछड़े वर्गों के उत्थान को भी आदर्श बनाया गया है। संविधान में इनके उत्थान के लिए विशेष संरक्षणों की व्यवस्था प्रदान की गई है। इन वर्गों के उत्थान के प्रयासों में उल्लेखनीय प्रगति भी हुई है। भारतीय राजनीति व्यवस्था की अद्भुत विशेषता यहाँ के नेतृत्व के संदर्भ में बहुत भाग्यशाली रहा है। देश में अनेक नेता चमत्कारी नेतृत्व वाले हुए है। इनमें तिलक, गाधी, बोस, विनोबा, जयप्रकाश, लालबहादुर शास्त्री, चै.चरणसिंह, डाॅ अम्बेडकर, पंडित नेहरू, अन्ना हजारे आदि है जिनके नाम का दुरूपयोग कर अनेक लोग अपने परिजनों सगे-सम्बंधी आपसी हितबद्ध लोगों सहित स्वयं सरकारी पदों पर पदासीन होकर देश-समाज की सार्वजनिक धन-सम्पति को हड़पकर अवैध लाभ कमाने में जुटे हुए हैं। इनके द्वारा किए जा रहे अपराध घोटलों व आय के स्रोतों से अधिक संग्रहित धन-सम्पत्ति इनको दंडित किए जाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं इसके बावजूद यह दंड से बचकर उच्चसदनों में पदासीन होकर भाग्य विधाता बन रहे हैं।
भ्रष्टाचार का शिकार भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का सर्वाधिक लाभ नौकरशाहों के माध्यम से राजनेताओं और उनके परिवारीजनों को मिल रहा है। देश विकास की योजनाओं का आबंटित धन नेताओं एवं प्रशासनिका अधिकारियों की सांठ-गांठ से हड़प लिया जाता है। राजनेता और नौकरशाह ‘विशेषाधिकार’ एवं ‘भ्रष्ट लोगों की समितियों’ को अपने बचाव हेतु उपयोग करते हैं। जबकि विशेषधिकार ही भ्रष्टाचार का द्योतक है तथा भ्रष्ट लोगों की विशेष समितियों साधारण जनता के विरूद्ध और व्यक्ति विशेष के लिए लाभदायक सिद्ध हो रही है।
राष्ट्रीय मान-सम्मान प्राप्त करने वालों की वास्तविक स्थिति को देख-विचार कर हम दावे के साथ कह सकते हैं कि, यदि राष्ट्रीय मान-सम्मानों के चयनों की गंभीरता पूर्वक जांच की जाए तो उनकी प्रत्याशितायें कार्यशैलियां एवं चयनों से लेकर मनोनयन तक की समस्त गतिविधियाँ अति संदिग्ध व अन्यायपूर्ण प्राप्त होंगी। इन समस्त प्रकार के मनोनयन से पदासीन लोग व्यक्ति विशेष की कृपा एवं उनके सगे-संबंधी आपसी हितबद्ध गुर्गों मात्र तक सीमित रहते हैं। इनके संबंध में जांच-कार्यवाही हेतु बनी समितियों में शामिल अधिकांश अधिकारी-सदस्यों की संस्तुति-प्रमाणपत्र फर्जी एवं भ्रामक बनाए जाते है।
सार्वजनिक एवं संवैधानिक पदों पर वी.आई.पी.के रहीश परिजन सगे-संबंधी आपसी हितबद्ध लोग पदासीन हो रहे हैं। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिकदलों के प्रमुखों और नौकरशाहों को सार्वजनिक एवं संवैधानिक पदों पर कार्य करने के लिए अपने परिजनों, सगे-संबंधियों और गुगों के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय नागरिक (जनसाधारण) पूर्णतया अयोग्य हैं। राजनेताओं-नौकरशाहों की स्वार्थता एव धृतराष्ट्रता के कारण सरकारी-संवैधानिक पदों पर उनके रहीश बेटे, बेटी, भाई, बहिन, बहनोई, साले, साढू, दामाद, पतोहू आदि सगे-संबंधी मात्र ही पात्र बनकर पदासीन हो रहे हैं। ऐसी अलोकतांत्रिक पदासीनता का प्रस्ताव व समर्थन ठीक उसी तरह दिख रहा है, जैसे किसी किन्न्ार नरेश के बन्दीजनों के द्वारा किया जाने वाला गुणगान।
वर्तमान में कहने को हमारे देश और प्रदेशों में लोकतांत्रिक सरकारे हैं परन्तु वास्तविक स्थिति इससे परे है। सरकारों में पदासीन अधिकांश राजनेता एवं उनके परिजन सगे-संबंधी आपसी हितबद्ध लोग अपनी सुरक्षा के नाम पर राज्यों की संपूर्ण ‘सुरक्षाबलों’ पर कब्जा व ‘समाजसेवा’ के नाम पर फर्जी नाम-पतों के लागों की एन.जी.ओ.बना सरकारी मुख्यालयों-कार्यालयों पर कब्जा जमा कर अराजकता कर रहे हैं। नौकरशाह इनकी ‘जी-हजूरी’ में जुटे हुए है। सरकारी-विकास निधियों का धन फर्जी कार्यवाही से राजनेता-कर्मचारी बैंकों से भुगतान लेकर आपस में बंदरबांट कर रहे हैं। गबन-घपलों को दबाने के उद्देश्य से जांच समिति-आयोग बनाकर ‘जन-आक्रोश’ दबाया जा रहा हैं। ऐसी वी.आई.पी. और उनके परिजनों की जनविरोधी गतिविधियांँ देश-समाज के लोकतंत्र एवं जनसाधारण के लिए कितनी उपयोगी एवं कल्याणकारी है, विशेष चिंताजनक है।
आज सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप आचरण करने की प्रेरणाएं कमजोर हो रही हैं तथा सामाजिक सम्बंध एवं सामाजिक बंधन शिथिल हो रहे हैं। समाज की प्रायः सभी श्रेणियों में अशाँति बढ़ रही है, युवाओं, किसानों, औद्योगिक श्रमिकों, छात्रों, सरकारी कर्मचारियों, अल्पसंख्यकों में अशाँति दिख रही है। यह अशाँति कुंठाओं और तनाओं को बढ़ाती है जिसके परिणामस्वरूप कानूनी और सामाजिक प्रतिमानों का उल्लंघन होता है। इस प्रकार समाज की वर्तमान अव्यवस्थाओं और संरचनाओं का संगठन और कार्यप्रणाली अपराध की वृद्धि के लिए उत्तरदायी है।
प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कार्य करने से पूर्व उससे मिलने वाले सुख एवं दुःख का हिसाब लगाता है और वही कार्य करता है जिससे उसको सुख मिलता है। एक अपराधी भी अपराध इसलिए करता है कि उसे अपराध करने पर दुःख की तुलना में सुख अधिक मिलता है। इसलिए अपराध को रोकने के लिए दंड इतना मिलना चाहिए कि अपराध से मिलने वाते सुख की तुलना में अधिक हो।
जनमानस की सुरक्षा एवं सामाजिक न्याय के विकास हेतु लोकतांत्रिक व्यवस्था की निगरानी जरूरी है। यह व्यवस्था तभी उपयोगी हो सकती है जब देश-समाज के प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के प्रति अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन पवित्र भाव से करें तथा समाज में उपलब्ध सभी साधनों का उपभोग सामान्यजनों को सुगमता से प्राप्त हों।
दिनांकः- 18-01-2015 (डाॅ. नीतू सिंह सेंगर)