बढ़ते इंसान ,कम होती इंसानियत
इंसानों की बस्ती में इन्सान देखने के लिए आँखे तरस गई हैं ,यहाँ इंसानों की तादात तो बढ़ रही है लेकिन इंसानियत ख़त्म होती जा रही है कभी कभी शक होने लगता है कि क्या वाकई हम इंसानों की दुनिया में रहते हैं या जानवरों के जंगल में जहाँ इनका खुला जंगल राज चलता है, इसका सबूत है ये कि इस बढ़ती महँगाई के दौर में अगर कुछ सस्ता है तो वो है लाल रंग ,जिसकी कीमत दिन ब दिन सस्ती होती जा रही है अब आप पूछेंगे कि कैसे ? कभी पेशावर में बहाया जाता है ये लाल रंग तो कभी पेरिस में ,और जिस तरह से बहाया जा रहा है उस तरह से तो यही लगता है कि इस रंग की कीमत इतनी ही है | जो चीज़ सड़को और गलियों में इस क्रूरता के साथ बहाई जाए उसकी कीमत इससे ज़्यादा हो भी नहीं सकती | आज अखबार पढ़ते हुए डर लगता है ,टीवी देखते हुए डर लगता है कि न जाने कहाँ से ये खबर आ जाये कि इंसानियत के दुश्मनों ने आज यहाँ हमला कर दिया और इतने लोग मारे गये | एक डर बैठ गया है आज आम आदमी के दिल ओ दिमाग में |कहाँ से आया ये डर ? क्यों हम इस खौफ के साए में जीने को
मजबूर हैं जहाँ हमे अपनी ही ज़िन्दगी का कोई ठिकाना दिखाई नहीं देता | इस बात की कोई गारंटी नहीं कि हमारा बच्चा स्कूल से वापस आएगा या नहीं ,हम ऑफिस से वापस आयेंगे भी या नहीं ? आखिर साबित क्या करना चाहते हैं ये इंसानियत के दुश्मन ,कौन सी फैक्ट्री है जिसमे इंसानियत के इन दुश्मनों का उत्पादन हो रहा है |कौन पनाह दे रहा है,कौन पाल रहा है इनको ?किस तरह का जेहाद है ये ?कौन सा इस्लाम है ये ? मासूम बच्चों को इतनी बेरहमी से मारने वाले जेहादी कैसे हो सकते हैं ,इस्लाम को मानने वाले कैसे हो सकते हैं ? बेगुनाह लोगों को मारने वाले खुद को मुसलमान कैसे कह सकते हैं? इस्लाम ने कब इजाज़त दी बेगुनाहों को मारने की ?अगर किसी ने कुछ गलत किया
तो हम कौन हैं उसे इस तरह से सज़ा देने वाले ? सवाल बहुत सारे हैं लेकिन जवाब किसी के पास नहीं | शायद ये आदम की बोई हुई फसल ही है जिसे आज की नस्लें काट रही हैं ,क्योंकि आदमी काटता वही है न जो बोता है | तालिबान हो या आईएसएसआई इन्हें बनाया किसने ,परवरिश किसने की? जिन्होंने अपने मतलब के लिए इस खरपतवार को खाद पानी दिया आज वही खेत उजाड़ने का काम रहे हैं| ज़रूरी नहीं हर बात को साफ़ लफ़्ज़ों में कहा जाए समझने के लिए इशारा ही काफी है | इतिहास गवाह है कि अपनों ने ही अपनों को मारा है अपनों पर ही तलवार उठाई है ,अपनों पर ही ज़ुल्म की इन्तहा की है अगर इसमें सच्चाई नहीं होती तो हज़रत अली को मस्जिद में अपनी शहादत न देनी पड़ती,इमाम हुसैन अपने बहत्तर साथियों के साथ शहीद न हुए होते | उन पर ज़ुल्म ओ सितम करने वाले कौन थे आज भी इतिहास खुद को दोहरा रहा है अगर उस वक़्त ही इनके हौसले पस्त कर दिए जाते तो इस वक़्त ये हौंसले इतने बुलंद न होते | लिखने के लिए ये विषय कोई नया नहीं बहुत कुछ लिखा जा चुका और रोज़ लिखा जा रहा है बात इसकी गंभीरता को समझने की है और इस पर जितना लिखा जाए उतना कम है क्योकि तलवार से कहीं ज्यादा ताक़त कलम में होती है | ये समझाना ज़रूरी हो गया है
इंसानियत के इन दुश्मनों को कि आदम की नस्लों का खून इतना सस्ता भी नही जिसे गली कूचों और सड़कों पर बहाया जाए कहीं ऐसा न हो कि खून के ये छींटे सैलाब ले आयें जिसमे दहशतगर्दों की का नामो निशान तक मिट जाए…..आज अंतरराष्ट्रीय पटल पर इन दिनों अगर कोई मुद्दा छाया है तो वह है दहशत और दहशतगर्द जिन्होंने पूरी दुनिया की नींद उड़ा के रख दी है और सोचने पर मजबूर कर दिया है कि इस ज़हरीले सांप का फन कैसे कुचला जाए | आतंक और आतंकियों के खिलाफ जंग छेड़नी होगी सबको एक साथ मिलकर क्योकि आतंकी कभी किसी के सगे नहीं होते ये ग़लतफ़हमी जितनी जल्दी दूर हो जाए उतना अच्छा है क्योंकि अगला निशाना कब ,कौन कहाँ होगा ये कोई नहीं जानता ….!!