(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

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अठारहवीं लोकसभा के पहले सत्र की शुरूआत से ऐन पहले, अपने परंपरागत वक्तव्य से प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर साफ कर दिया कि उनकी सरकार से, जनादेश का आदर करते हुए, पहली पारियों के मुकाबले, तौर-तरीकों में किसी खास बदलाव की आशा नहीं की जानी चाहिए। बेशक, प्रधानमंत्री ने संसद ही नहीं, आमतौर पर शासन के लिए भी बहुमत से बढ़कर, आम सहमति के जरूरी होने पर विश्वास करने का दावा किया है। लेकिन, इसके पीछे इस बार के जनादेश से उत्पन्न किसी विनम्रता की जगह, सिर्फ बयानबाजी थी और यह प्रधानमंत्री के इसके दावे से साफ नजर आता था कि उनकी सरकार तो, दस साल से आम सहमति बनाने और सब को साथ लेकर चलने के ही रास्ते पर चल रही थी! बची-खुची कसर, प्रधानमंत्री द्वारा इस मौके पर भी छोड़े गए विपक्ष के खिलाफ इस प्रकार के तीरों ने पूरी कर दी कि लोग संसद से बहस की अपेक्षा करते हैं, नाटक की नहीं, हंगामे आदि की नहीं! प्रधानमंत्री मोदी को इतने से भी संतोष नहीं हुआ तो वह, एक दिन बाद इमर्जेंसी लगाए जाने का पचासवां साल शुरू होने के बहाने से, विस्तार से इमर्जेंसी को धिक्कारने में चले गए, जिसका मकसद सबसे बढ़कर यह साबित करना था कि उनके राज के दस साल में संविधान पर आया संकट तो कोई संकट ही नहीं था। हैरानी की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री ने अपने इस वक्तव्य से इसी का इशारा दिया है कि संसद के पिछले कई सत्रों की तरह, अठारहवीं लोकसभा का पहला सत्र भी तीखे टकराव का ही सत्र होने जा रहा है।

मोदी और उनकी भाजपा, जिस तरह से इस चुनाव के जनादेश को तोड़ने-मरोड़ने और उसके कई महत्वपूर्ण तत्वों को दबाने की ही कोशिश कर रही हैं, उसे देखते हुए एक बार फिर यह याद दिलाना अनुपयुक्त नहीं होगा कि अगर, अपने एनडीए गठबंधन के 293 के आंकड़े के बल पर, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार सरकार बनना, 2024 के जनादेश का एक महत्वपूर्ण पहलू है, तो इसी जनादेश का इतना ही महत्वपूर्ण पहलू कुुल मिलाकर देश की जनता द्वारा मोदी की भाजपा का हरेक पहलू से ठुकराया जाना है। 2019 के चुनाव के मुकाबले खुद भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 पर आ जाना और पिछले चुनाव से ज्यादा सीटें लड़ने के बावजूद, उसका अपना मत फीसद करीब 1 फीसद घट जाना और इसी प्रकार, मोदी के नेतृत्व में चल रहे एनडीए की सीटें, साढ़े तीन सौ से ऊपर से घटकर 293 रह जाना और उसके मत फीसद में भाजपा से भी ज्यादा गिरावट होना, उसी जनादेश के महत्वपूर्ण संकेत हैं। जनादेश के दोनों पहलुओं का जोड़कर देखें, तो संक्षेप में इस बार का चुनावी जनादेश देश में केंद्रीय सत्ता, मोदी और उनकी भाजपा के हाथों से छीनकर, एक साफ तौर पर उससे कहीं व्यापक गठबंधन को सौंपने का जनादेश है। मोदी की भाजपा को अकेले सत्ता सौंपने से इंकार, इस चुनाव में मतदाताओं का स्पष्ट फैसला है। और जाहिर है कि यह स्पष्ट जनादेश, मोदी राज के दस साल के जनता के सामने परीक्षा में फेल हो जाने को ही दिखाता है। ऐसे में मोदी की नयी सरकार को मोदी 3.0 कहने और उससे बढ़कर बनाने की जिद, जनादेश को नकारने, झुठलाने की ही जिद है। और जनतंत्र में ऐसी जिद, आसानी से चल नहीं सकती है और अगर चलती है, तो जनतंत्र के पर कतरते हुए ही चल रही होगी।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए और उसकी सरकार को आम सहमति के बजाय, तीखी और अनुचित टकराव के रास्ते पर ही धकेले जाने का पहला संकेत तो तभी मिल गया था, जब प्रो-टेम स्पीकर जैसे महज सम्मान के अति-अस्थायी पद को भी,भाजपा की झोली में डालने की उसकी जिद सामने आयी। सिर्फ नव-निर्वाचित लोकसभा सदस्यों को शपथ दिलाने और स्पीकर का चुनाव कराने तक सीमित भूमिका वाले इस पद पर, हमेशा ही सदन में चुनकर आए सबसे वरिष्ठ सदस्य को बैठाया जाता है। लेकिन, मोदी राज ने इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी से जुड़े दो वरिष्ठतम सदस्यों की दावेदारी को नकार दिया और राष्ट्रपति से सिफारिश कर उनसे कनिष्ठ भर्तृहरि मेहताब को प्रो-टेम स्पीकर बनवा दिया, जो बीजू जनता दल से छ: बार लोकसभा में चुने गए थे और इसी बार भाजपा की ओर से चुनकर आए हैं। हैरानी की बात नहीं होगी कि इस तरह से नरेंद्र मोदी, एनडीए के अपने सहयोगियों को मंत्रिपदों के बंटवारे में सस्ते में निपटाने के बाद, स्पीकर का पद भी अपने पास ही रखने का दबाव बना रहे हैं। याद रहे कि स्पीकर पद के एनडीए में भाजपा के किसी सहयोगी दल के हाथ में रहने को, मोदी की भाजपा के प्रति सहयोगी दलों की आशंकाओं को दूर करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। खबरों के अनुसार, खासतौर पर तेलुगू देशम् पार्टी शुरूआत से इस पद के लिए इस आधार पर दावा भी करती आयी है कि मोदी-पूर्व एनडीए सरकार में, तेलुगू देशम् के पास यह पद रहा भी था।

बहरहाल, जनादेश से उल्टी दिशा में चलते हुए, मोदी का ज्यादा से ज्यादा सत्ता अपने हाथों में केंद्रित रखना, राजनीतिक रूप से एनडीए में खींचतान को तो जितना बढ़ाएगा, बढ़ाएगा ही, यह मोदी सरकार पर दबावों को भी बढ़ाने जा रहा है। जिस जनादेश के फलस्वरूप सब कुछ के बावजूद नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली है, उसी जनादेश का दूसरा पहलू यह भी है कि 18वीं लोकसभा में एकजुट विपक्ष की ताकत, पिछली दो लोकसभाओं के मुकाबले उल्लेखनीय रूप से ज्यादा है। जाहिर है कि विपक्ष की यह बढ़ी हुई ताकत, कोई निष्क्रिय ताकत तो होने वाली नहीं है। विपक्ष की यह बढ़ी हुई ताकत, जिसे मोदीशाही की इस बार के चुनाव के जनादेश को नकारते हुए, पिछली बार की तरह तानाशाही चलाने की कोशिशें, और ज्यादा एकजुट तथा संकल्पबद्घ ही करने जा रही हैं, वर्तमान शासन की विफलताओं और कमजोरियों को वैसी प्रखरता से उठाने जा रही है, जैसी प्रखरता से पिछले दस साल में नहीं उठा पा रहा था। और यह चीज संघ-भाजपा के हाथों में सत्ता के ज्यादा केंद्रीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते, शासन में दिखाई देने लगीं बढ़ती हुई दरारों को चौड़ा करने जा रही है, जहां गोदी मीडिया के लिए भी उन्हें अनदेखा करना मुश्किल हो जाएगा।

नीट-यूजी की परीक्षा को लेकर उठे बवाल के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। देश भर में मेडिकल कालेजों में दाखिले की इस परीक्षा में इस बार इतनी ज्यादा और इतने खुले तौर पर गड़बड़ियां हुई हैं कि मेन स्ट्रीम मीडिया पर मोदी राज के सारे नियंत्रण के बावजूद, इन धांधलियों के खिलाफ स्वत:स्फूर्त आंदोलन को तेजी से बढ़ने से रोका नहीं जा सका है। इसीलिए, शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को तीन-चार दिनों में ही सुर बदलकर, नीट परीक्षा को क्लीन चिट देना छोड़कर, कुछ जगहों पर गड़बड़ियां होने और गड़बड़ी करने वाले किसी को भी नहीं छोड़ने का सुर अपनाना पड़ा है। इसी बीच यूजीसी-नेट से लगाकर, संबंधित केंद्रीय परीक्षा एजेंसी, एनटीए को परीक्षा पर परीक्षाएं रद्द या स्थगित ही नहीं करनी पड़ी हैं, उसके निदेशक पर गड़बड़ियों की गाज भी गिर चुकी है, जबकि नीट-यूजी की परीक्षा में गड़बड़ी की सीबीआइ जांच शुरू ही हो रही है। बेशक, नीट की सीबीआई जांच से बहुत ज्यादा आशा करना मुश्किल है।

मध्य प्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा मंडल या व्यापमं महाघोटाले की सीबीआई जांच का जैसा हस्र हुआ, वैसा ही हस्र नीट-यूजी की जांच का होने की ही ज्यादा संभावनाएं हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि व्यापमं घोटाले की ही तरह, नीट घोटाले के संबंध में अब तक आई तमाम जानकारियां, संघ-भाजपा के ताने-बाने से सीधे उसके तार जुड़े होने की ही गवाही देती हैं। और इस सबके शीर्ष पर हैं, एनटीए के चेयरमैन के पद पर विराजमान डॉ. प्रदीप जोशी, जिनका परीक्षा एजेंसियों में शीर्ष पदों पर एक दर्जन साल से ज्यादा का कैरियर, आरएसएस के प्रचारक की पुर्जी से शुरू होकर, ऐसी पुर्जियों के सहारे ही भाजपा के राज में निरंतर आगे बढ़ा है। मोदी राज में इस कनेक्शन पर कौन सी सीबीआई हाथ लगाएगी।

जाहिर है कि सरकार बनते ही समस्याएं, सिर्फ धर्मेंद्र प्रधान के सिर पर ही नहीं आ पड़ी हैं। अश्विनी वैष्णव के मंत्रित्व में भारतीय रेल ज्यादा से ज्यादा असुरक्षित होती गई है और ऐसे ही अमित शाह के मंत्रित्व में, मणिपुर से लेकर जम्मू-कश्मीर तक देश के अनेक हिस्से ज्यादा से ज्यादा असुरक्षित हो रहे हैं। और इस सब के पीछे व्यक्तिगत विफलता से बढ़कर नीतिगत कारण हैं। मोदी जी के राज में पहली बार, एक साथ कई-कई मंत्रियों के इस्तीफों की मांग उठ रही है। आगे-आगे, जैसे-जैसे ऐसी मांगों और मुद्दों का दबाव बढ़ेगा, वैसे-वैसे एनडीए में भाजपा के सहयोगी दलों के लिए, उस मोदी राज का बचाव करना मुश्किल होता जाएगा, जिसमें उनका दांव और दखल वैसे भी कम से कम ही रहने जा रहा है। ऐसे में मोदी राज के साथ अपना रिश्ता उनके लिए राजनीतिक बोझ बन जाएगा, जिससे गला छुड़ाने के लिए वे बहाने खोजेंगे और मोदी राज में इसके बहाने इफरात में मिल भी जाएंगे। हां! संघ परिवार ही युक्ति निकालकर तख्तापलट करा दे, तो शायद वह संभावित संकट कुछ और दूर खिसक जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)