शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन।
दीन अस्त हुसैन, दीं पपनः अस्त हुसैन।
सर दाद न दाद दस्त दर दस्ते यज़ीद।
हक़्क़ कि बिनये ला इलाह अस्त हुसैन।
ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ अजमेरी ने इस रुबाई में इमाम हुसैन को वह ख़राजे अक़ीदत पेश की है जो और कोई न कर पाया। बेशक हुसैन शाह भी हैं और बादशाह भी हैं, इन के सामने इंसानों का सर भी झुकता है और दिल भी झुकता है। और रहती दुनियाँ तक इंसानों का यह अमल जारी रहे गा, क्योंकि हुसैन न सिर्फ़ दीन को अपनी पनाहों में रखे हुए हैं बल्कि वह ख़ुद ही दीन हैं। उन्होंने ने इंसानियत को बचाने के लिए अपना सब कुछ लुटा दिया मगर यज़ीद इब्ने मुआविया की बेदीनी पर दीन की मोहर न लगाई, और सच तो यही है इमाम हुसैन ने करबला में जान दे कर उस इस्लाम को क़यामत तक बचा लिया जिसे मुसलमानों ने अपने हाथों से मिटा कर बनी उमैया की इस्लाम दुश्मनी को इस्लाम का नाम दे दिया था। बेशक इमाम हुसैन ने करबला में अपने ख़ून से एक हद बना दी, इस्लाम और है और मुसलमान और है, इस्लाम अपने उसूलों से पहचाना जाए गा और मुसलमान अपने अमल से।
कल मोहर्रम की दसवीं तारीख़ गुज़र गई, पूरी दुनियां में उस ज़ुल्म के ग़म के बादल छाए हुए थे, जो रसूल अल्लाह के घराने पर मुसलमानों ने ढाया था। रसूले इस्लाम को दुनियां से गये अभी 50 साल ही गुज़रे थे कि करबला में उन्हीं के कलमा पढ़ने वालों ने उन के ही उस नवासे और साथ उन के बेगुनाह बच्चों, भाइयो और साथियों को बेरहमी से मार दिया था। जो कभी रसूल के कांधे पर सवार हुए, कभी ख़ुतबा तोड़ कर रसूल ने अपनी गोद मे ले कर कहा, यह हुसैन है, यह ” मुझ से है और मै हुसैन से हूँ ” , जिसे अपनी जुबान चुसा कर पाला उसी को तीन दिन का भूखा और प्यासा रखा, और फिर बेरहमी से शहीद कर दिया। इमाम हुसैन ने खुद कहा, मुझे प्यासा रुला रुला कर मारा गया, मेरे चाहने वालों से कहना , जब भी पानी पिएं तो मेरी प्यास को याद कर लें।
मुझे यह कहने में कोई दिक़्क़त नहीं कि मुसलमान रसूल से नाता तोड़ कर कहीं और से शिक्षित, दीक्षित हो चुका था, इसी लिए तो वह उस यज़ीद की ग़ुलामी में लग गया था जो, जान बूझ कर रसूल अल्लाह की रिसालत, क़ुरान, अल्लाह, फ़रिश्ते से खुले आम इनकार कर रहा था और मुसलमान उसे रसूल का ख़लीफ़ा मान कर उसकी हर बुरी बात को धर्म आदेश मान रहे थें। यह बदलाव एक दिन का नहीं था, बरसों से यह मुहिम चल रही थी जिसकी इंतेहा करबला में हुई। यज़ीद बिन मुआविया का दादा अबूसुफ़यान बिन हरब ने इस्लाम और रसूले इस्लाम की दुश्मनी में मक्का से लश्कर ला ला कर रसूल से जंग कर के मुंह की खाता रहा, उसकी बीवी हिन्द ने जंगे ओहद में रसूल के चाचा का कलेजा निकाल कर कच्चा चबाना चाहा मगर चबा न सकी, फिर फ़तह मक्का के दिन डर कर मुसलमान हो गए, मगर इंसाफ़ से सोंचिये, जो रसूल की मक्का की ज़िंदगी मे उनसे नफ़रत करता रहा, यहां तक कि उनके क़त्ल की साज़िश में बराबर का शरीक रहा, जब रसूल मक्का से हिजरत कर के मदीना चले गए तो 9 साल तक जंगे लड़ता रहा वह कैसा मुसलमान होगा?
उसी गोदों में पल हुआ यज़ीद था जो अपनी ख़ानदानी रिवायत की बिना पर कह रह था, कि कोई रसूल नहीं आया, कोई क़ुरान नहीं आया, मगर मुसलमान उसी को झुक झुक कर सलाम करते रहे, अजीब बात है आज भी उन्हीं में से एक तबक़ा है जो यज़ीद को सही साबित करने में जी जान लगाए हुए है। और अपने को मुसलमान भी कहता है।
तो उन्हीं यज़ीद परस्त मुसलमानों ने 10 मोहर्रम 61 हिजरी को निवासए रसूल हज़रत इमाम हुसैन अस को बड़ी ही बेरहमी से शहीद किया, और आज तारीख़ में अपनी बेदीनी के साथ साथ बेहयाई का खुला खेल खेला था।
नबी ज़ादे और शहीदों के लाशें बे गोरो, कफ़न करबला के तपते हुए बन में छोड़ कर नबी की निवासियों और उनके घर की औरतों, जो बच्चे बाच गए थे सब को क़ैदी बना कर ऊंट की नंगी पीठ पर बिठा कर, ले कर चले गए। इमाम हुसैन के उस बेटे को जो बीमार थे, सैयदे सज्जाद को हथकड़ी, बेड़ी , कमर में लंगर और गले मे तौक़ डाल कर जीत का जश्न मनाते हुए, कूफ़ा की तरफ़ रवाना हो गए, शहीदों का सर नैज़ों पर रख कर आगे आगे रखा और क़ैदी को उसके पीछे, मगर यह पहला वाक़या था जब यज़ीद जीत कर हार गया और इमाम हुसैन ज़ाहिरी तौर पर हार कर जीत गए। आज दुनियां देख रही है कि इमाम हुसैन धार्मिक बंधनों को तोड़ कर हर इंसान के दिल मे बसे हैं, मगर यज़ीद के टुकडगड्डे वकील भी अपने बच्चों का नाम यज़ीद रखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
बस यूं समझ लीजिए, कल एक क़यामत गुज़र गई और आज से एक नई क़यामत की शुरुआत हो गई।
लानत है ऐसे मुसलमानों पर जो रसूल का कलमा पढ़ कर रसूल से दुश्मनी रखते हैं।