NEP के सुनियोजित रोड मैप के बिना स्कूली शिक्षा का लोक व्यापीकरण संभव: स्कोर
लखनऊ। स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन (स्कोर) उत्तर प्रदेश ने विगत छह सालों की कवायद के बाद बुधवार को घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 द्वारा शिक्षा में सार्वजनिक निवेश को सकल घरेलू उत्पाद के 6 फीसदी तक बढ़ाने की सिफारिश का स्वागत किया है।
स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन (स्कोर) उत्तर प्रदेश के संयोजक संजीव सिन्हा ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 द्वारा 3.18 वर्ष के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण की सिफारिश पर संतोष व्यक्त किया है। लेकिन साथ ही आशंका व्यक्त की है कि पूर्व-प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक शिक्षा अधिकार कानून का विस्तार किए बगैर यह संभव नहीं होगा। मौजूदा शिक्षा नीति बच्चों को अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के लिए हासिल मौलिक अधिकार के क्रियान्वयन के लिए जवाबदेह शिक्षा अधिकार कानून- 2009 और उसके दायरे में विस्तार को लेकर आश्चर्यजनक रूप से मौन है। यह शिक्षा के लोकव्यापीकरण के अहम मसले पर शिक्षा नीति की मंशा को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है।
संजीव सिन्हा ने कहा कि कस्तूरीरंगन समिति द्वारा मानव संसाधन विकास मंत्री को सौंपे गए और बाद में सार्वजनिक सुझावों के लिए जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के मसौदे ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 का विस्तार करते हुए पूर्व-प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को अधिनियम के दायरे में शामिल करने का वादा किया था। उस वक्त नागरिक समाज संगठनों समेत समाज के व्यापक हिस्से ने इस का स्वागत किया था क्योंकि यह स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण की दिशा में निश्चय ही एक बड़ा कदम साबित होता। लेकिन ये बड़ी निराशा की बात है कि अंतिम तौर पर घोषित शिक्षा नीति में पूर्व-प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को कानूनी अधिकार बनाने का कोई उल्लेख नहीं है। चूंकि यह शिक्षा नीति बिना कानूनी अधिकार के 3-18 वर्ष के बच्चों की शिक्षा को लोकव्यापी बनाने की बात करती है, इसलिए इस संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के लिए किसी अनिवार्य दिशा-निर्देश या व्यवस्थागत ढांचे की बात भी नहीं है। शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर पर ड्रॉपदृआउट की संख्या काफी ज्यादा है और उसके कारण लड़कियों, दलित-आदिवासी, अल्पसंख्यक समेत तमाम सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों एवं शारीरिक-मानसिक अक्षमताओं से जूझ रहे बच्चों के व्यापक हिस्से पर शिक्षा के दायरे से बाहर होने का खतरा मँडराता रहता है। शिक्षा नीति को इस तथ्य पर गौर करने की जरूरत थी कि मौजूदा शिक्षा अधिकार कानून- 2009 सैकड़ों सालों के संघर्ष के बाद हासिल एक कानून है, जो शिक्षा नीतियों द्वारा घोषित प्रतिबद्धताओं का उच्चतम स्तर था और अब आम जनता के हक में और शिक्षा के दायरे से बाहर करोड़ों बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाने की जरूरत थी।
स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन (स्कोर) के कोर ग्रुप सदस्य व एक्शन ऐड, उत्तर प्रदेश के खालिद चौधरी ने एक और महत्वपूर्ण विसंगति की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा कि शिक्षा नीति में कक्षा 6 से छात्रों का व्यावसायिक प्रशिक्षण शुरू करने की बात है, जिसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह बच्चों को श्रम बाजार में धकेलने की तैयारी है। जो कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चे हैं, वे कौशल उन्नयन के नाम पर कुछ अक्षर-ज्ञान सीख कर शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों से दूर हो जाएंगे। पॉलिसी में मिडिल व सेकेंडरी विद्यालयों से हीं तकनीकी शिक्षा को समाहित करने की बात की गयी है जो कि गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के बजाय बच्चों को बाजार के लिए तैयार करने के विचार से बनाया गया है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ 34 लाख से ज्यादा बच्चें स्कूल से बाहर हैं, उन्हें ऐसी शिक्षा नीति बाजार की तरफ धकेलेगी।
स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन (स्कोर) उत्तर प्रदेश के कोर ग्रुप के सदस्य प्रशांत प्रकाश ने लड़कियों की भागीदारी को बढ़ावा देने और स्कूली शिक्षा को पूरा करने के लिए जेंडर इंक्लूजन फंडस् के निर्माण की सराहना की है। नीति में उल्लिखित वैचारिक समझ पर जोर देने और रचनात्मकता एवं समालोचनात्मक चिंतन-प्रक्रिया (क्रिटिकल थिंकिंग) को प्रोत्साहन की बात भी ठीक लगती है, लेकिन मुकम्मल तौर पर देखें तो इस बहुप्रतीक्षित शिक्षा नीति के भीतर इन आयामों को बढ़ावा देने के व्यापक संकेतों का अभाव भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
इस शिक्षा नीति में डिजिटल शिक्षा पर खूब जोर दिया गया है। इस संदर्भ में स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन (स्कोर) उत्तर प्रदेश के कोर ग्रुप के सदस्य व ऑक्सफेम , उत्तर प्रदेश के बिनोद सिन्हा ने आशंका जताई कि ऐसा र्कोइ भी कदम समाज में पहले से ही मौजूद विभेदीकृत और बहुपरती शिक्षा की कड़ी में इजाफा करते हुए असमानताओं को बढ़ावा देगा। फिलहाल देश में डिजिटल शिक्षा से व्यापक आबादी समूहों को जोड़ने के लिए पर्याप्त बुनियादी संरचना नहीं है। कोविड-19 महामारी के इस भयावह दौर ने तो स्पष्ट दिखा दिया है कि हाशिए पर मौजूद 70 प्रतिशत से अधिक बच्चे किस तरह से डिजटल दुनिया की आनलाइन कक्षाओं और शिक्षा से बाहर हैं।
यह शिक्षा नीति सार्वजनिक-निजी साझेदारी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) की वकालत करती है जो दरअसल शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थानों, कॉर्पोरेट घरानों के प्रवेश का रास्ता देती है। सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के लिए ये संकेत चिंताजनक हैं, जो समावेशी और हर बच्चे तक शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करने के बरक्स शिक्षा और इस प्रकार समाज में मौजूद असमानताओं को और तेजी से आगे बढ़ाने के रास्ते खोलता है।
पॉलिसी बाजार को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है, जिसमें एक निजी विद्यालय को एक सरकारी विद्यालय से जोड़े जाने की बात की गयी है, जिसमें संसाधनों का भी आदान प्रदान करने की बात की गयी है, जो सरकारी संसाधनों को निजी हाथों में देने का अंदेशा देता है। उत्तर प्रदेश में आधे से ज्यादा नामांकित बच्चे निजी विद्यालयों में जाते हैं और यही स्थिति राष्ट्र स्तर पर भी है। इसलिए निजी विद्यालयों के नियंत्रण और उसमें जाने वाले बच्चों के हित को सुनिश्चित करने के लिये कोई जिक्र नहीं है।
स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन (स्कोर) उत्तर प्रदेश के कोर ग्रुप के सदस्य अजय शर्मा ने याद दिलाया कि इस शिक्षा नीति में समान स्कूल प्रणाली यकॉमन स्कूल सिस्टमद्ध का कोई जिक्र नहीं है, जिसे पहली बार कोठारी आयोग (1964-66) द्वारा अनुशंसित किया गया था और जिसकी पुष्टि 1968 एवं 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों एवं 1992 की संशोधित नीति में की गई थी। इस संदर्भ में स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन (स्कोर) उत्तर प्रदेश ने जोर देकर कहा, मौजूदा स्कूली व्यवस्था के भीतर रचे-बसे भेदभाव को दूर करने का एकमात्र तरीका यही है कि देश में एक कॉमन स्कूल सिस्टम की शुरूआत हो, जो देश के सभी बच्चों के लिए समान गुणवत्ता की शिक्षा सुनिश्चित करेगा। 34 साल के लंबे अरसे के बाद आए इस अहम शिक्षा दस्तावेज से इस शब्दावली तक का गायब हो जाना, शिक्षा की सब की पहुँच और समान रूप से सबको शिक्षा मिले पर एक सवाल खड़ा करता है।