स्टार्स परियोजना से शिक्षा में बढ़ेगा निजीकरण का खतरा, शिक्षाविदों ने जताई आशंका
दस्तावेजों का खुलासा किए बिना विश्व बैंक ने स्टार्स शिक्षा परियोजना के लिए 500 मिलियन डॉलर क़र्ज़ को दी स्वीकृति
लखनऊ: भारत के 24 राज्यों से हजारों शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, जमीनी कार्यकर्ताओं, शिक्षक संघ और नागरिक सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों और मंचों द्वारा हाल ही में विश्वबैंक को चिट्ठी लिख कर जाहिर की गई चिंताओं के बावजूद, विश्व बैंक के बोर्ड ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए 500 मिलियन अमरीकी डालर के ऋण को स्वीकृत कर लिया है जबकि परियोजना की कुल लागत 36, 806 मिलियन डॉलर है। इसका अर्थ यह है कि परियोजना का बाकी खर्च केंद्र और राज्य सरकारें देंगी। लेकिन, पूरी परियोजना में निजी संस्थानों को काफी तवज्जो दी गई है। 24 जून 2020 को विश्वबैंक के बोर्ड ने भारत के छह राज्यों में टीचिंग लर्निंग एंड स्टेट्स फॉर स्टेट्स (STARS) यानी पठन-पाठन की प्रक्रिया को सशक्त बनाने के उद्देश्य से लाई गई इस परियोजना को मंजूरी दे दी है।
बीते बुधवार को इस परियोजना को बगैर औपचारिक चर्चा के (कोई आपत्ति न होने का आधार बनाते हुए) संस्तुति प्रदान कर दी गई। हालांकि विश्वबैंक के कई सदस्यों ने नागरिक संगठनों और बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों द्वारा लिखे गए पत्र को संज्ञान में लेते हुए विश्वबैंक प्रबंधन के समक्ष सीधे तौर पर चिंता जताई। इस पर विश्वबैंक ने नागरिक समाज के साथ व्यापक विचार-विमर्श की प्रतिबद्धता जताते हुए आश्वासन दिया कि परियोजना में लगाया जा रहा पैसा निजी शिक्षा प्रदाताओं के मुनाफे के लिए इस्तेमाल नहीं होगा।
गौरतलब है कि हाल ही में नागरिक संगठनों की पहल पर विश्वबैंक को सौंपे गए साझा विरोध पत्र में स्टार्स (स्ट्रेंथेनिंग टीचिंग लर्निंग एंड रिजल्ट्स फॉर स्टेट्स) परियोजना के बारे में कुछ अहम सवाल उठाए गए थे। स्कूल वाउचर, मुनाफे की दृष्टि से संचालित निजी संस्थाओं के शिक्षा के क्षेत्र में ज्यादा दखल की संभावना और निजी-सार्वजनिक साझेदारी पर ज्यादा ज़ोर जैसी चिंताजनक पहलुओं का जिक्र पत्र में था। “पत्र में इशारा किया गया था कि परियोजना में हाशिये के समुदायों और कमजोर वर्गों की शिक्षा तक पहुंच बनाने के लिए ठोस उपायों और भेद-भाव से जूझ रही शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए जरूरी मुकम्मल रणनीति का साफ अभाव है। दूसरी तरफ, सीखने-सिखाने संबंधी कक्षायी प्रक्रियाओं और वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य के सामने खड़ी रोज़मर्रा की चुनौतियों को दरकिनार कर अंतर्राष्ट्रीय मानकीकृत मूल्यांकनों के जरिये शिक्षकों और छात्रों से बेहतर नतीजे निकालने की बातें दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं।“
ऑल इंडिया प्राइमरी टीचर्स फेडरेशन के अध्यक्ष राम पाल सिंह ने परियोजना की मंजूरी पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “’ये प्रस्ताव पहले भी विफल रहे हैं। फेडरेशन भारत की शिक्षा के निजीकरण से बचने के लिए सतर्क रहेगा।”
राइट टू एजुकेशन (आरटीई) फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीश राय ने कहा, “परियोजना का स्वरूप भारतीय बच्चों के सामने मौजूद जाति, वर्ग, धर्म और लिंग आधारित भेदभाव की तमाम चुनौतियों की अनदेखी करता है। इन चुनौतियों से आँख चुराकर शिक्षा प्रणाली में सुधार की बात भला कैसे सोची जा सकती है। कोविड -19 के कारण ड्रॉपआउट दरों मे वृद्धि तय है और आगामी समस्याओं को हल करने के लिए और अधिक विशिष्ट प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता होगी।”
ऑक्सफैम इंडिया की एंजेला तनेजा, लीड स्पेशलिस्ट (शिक्षा और असमानता) ने कहा, “इस परियोजना को लाने में अपनाई गई पूरी प्रक्रिया और उसकी मंजूरी से हम निराश तो हैं, लेकिन नागरिक समाज की तरफ से भेजे गए पत्र के जवाब में कार्यान्वयन शुरू होने से पहले व्यापक परामर्श कराये जाने के आश्वासन का स्वागत है।“
स्टेट कलेक्टिव फॉर राईट टू एजुकेशन, स्कोर, उत्तर प्रदेश के संयोजक संजीव सिन्हा ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह परियोजना भारतीय समाज और परिवेश के विस्तारित संदर्भ में लड़कियों, अनुसूचित जातियों-जनजातियों और अल्पसंख्यक समुदायों के सामने शिक्षा के दौरान रोज आनेवाली चुनौतियों और बाधाओं का हल निकालने का कोई उपाय नहीं सुझाती।
संजीव सिन्हा ने कहा कि स्कूली बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी विशेष रोडमैप या एक्शनप्लान की बात भी यहाँ नहीं की गई है। यूनिसेफ और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की संयुक्त रिपोर्ट की बात करें तो भारत में कोविड -19 महामारी के कारण ड्रॉप आउट और बाल श्रम में भारी वृद्धि का अनुमान है। लिहाजा इस वक़्त कोई भी परियोजना आपदाओं से भी तात्कालिक और दीर्घकालिक रूप से निबटने की योजना के बगैर अधूरी होगी। इस दृष्टि से भी इस परियोजना का मौजूदा स्वरूप चिंताजनक है।