मज़दूर कहें या मजबूर
ज़ीनत शम्स
लोकतन्त्र में शासक का कर्तव्य सर्वसाधारण के लिये न्याय की स्थापना करना है। एक संवेदनशील व्यक्ति ही न्याय को परिभाषित कर सकता है। कोरोना क्या आया मानो हमारे देश के मजदूरों के लिये काल आ गया। भारत एक विकासशील देश है जहां पर लगभग 50 करोड़ मजदूर संगठित और असंगठित रूप में काम करते हैं। रोजी रोटी कमाने के लिये यह मजदूर अपने प्रदेश से औद्योगिक रूप से सक्षम प्रदेशों में जाते हैं जहां पर यह मजदूर अपने ही देश में प्रवासी बन जाते हैं मानो जैसे यह किसी दूसरे देश के नागरिक हों।
डब्लू एच ओ के दिशा निर्देश जनवरी के महीने में ही आने लगे थे लेकिन सरकार ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया और सबकुछ वैसे ही चलता रहा जैसे चल रहा था लेकिन जब लगा कि अब कुछ नहीं किया तो स्थिति भयावह हो जायेगी तो बिना कोई योजना बनाये लाकडाऊन का एलान कर दिया और यह लगातार जारी है, आगे भी जारी रहने के आसार हैं।
लाकडाऊन होते ही कारखाने बन्द हो गये, वेतन के लाले पड़ गए और मज़दूरों को बिना दिए वेतन मालिकों ने चलता कर दिया । यात्रा के साधन बन्द हो गये। बेबस और मजबूर मजदूरों का सड़कों पर रेला निकल पड़ा। जहां देखो जिधर देखों मजदूर ही मजदूर, भूखे प्यासे पैदल चलते मज़दूर, सिर पर बोझा ढोते मज़दूर। सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा करते मज़दूर। रास्ते में भूख प्यास से तड़पते और मरते मज़दूर। ट्रेन से कटते मज़दूर, गाड़ियों से कुचलते मज़दूर।
क्या आज़ादी के 73 साल बाद भी इन मज़दूरों के लिए कुछ बदला है, क्या यह सरकार के लिए सिर्फ वोटर मात्र हैं नागरिक नहीं ? ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि जो तस्वीरें हमने टीवी और अख़बारों या वेबसाइटों पर देखीं वह रंगीन ज़रूर थीं मगर पुरानी ब्लैक एंड वाइट फिल्मों की याद दिला रही थी जिसमें मज़दूर को एक दबे कुचले इंसान के रूप में पेश किया जाता था, जिसका जीवन साहूकारों के बही खाते में क़ैद होता था, जो खेतों में बैलों की जगह जोता जाता था| कहने का मतलब मज़दूर का मतलब मजबूर इंसान| आज वही तस्वीरें हमारे सामने हैं|
क्या सरकार के पास लॉकडाउन लागू करने से पहले कोई योजना थी| लॉकडाउन से पहले सरकार ने इन मज़दूरों के बारे में सोचा था कि जब मज़दूर सड़क पर आ जायेंगे तो उनका क्या करेंगे| नेताओं की असंवेदनशीलताओं के कारण कितनी माओं ने अपने बेटे खो दिए, कितनों ने अपना सुहाग गँवा दिया और कितने बच्चे अनाथ हो गए और कितनी महिलाओं के प्रसब सड़क पर हुए| इन सब घटनाओं का नैतिक उत्तरदायित्व किसका है| इतना होने के बाद भी सरकार ने संवेदनहीनता की हद कर दी| जब विदेशों में पढ़ रहे अमीरों के बच्चों को देश बुलाना था तो सरकार ने सारा खर्च वहन किया लेकिन जब मज़दूरों को घर भेजने की बात आयी तो पैसा वसूली का खेल शुरू कर दिया
अब योगी सरकार ने तीन श्रमिक कानूनों को हटा दिया है|
1 – 1923 एक्ट–श्रमिकों की ड्यूटी पर दुर्घटना होने पर मुआवज़ा पाने का अधिकार, काम पर जाते हुए दुर्घटना होने पर मुआवज़ा पाने का अधिकार|
2 –1976 एक्ट–समान वेतन का अधिकार, पुरुष और महिला को समान वेतन, प्रोन्नति का अधिकार |
3 — 1996 एक्ट–भवन व निर्माण कार्य के मज़दूरों को निर्माण की कुल लागत का एक प्रतिशत उपकर लगाकर उसे मज़दूर कल्याण बोर्ड में जमा किया जाय|
इस राशि को मज़दूरों के कल्याण के लिए खर्च किया जाय | जैसे बीमा, क़र्ज़, मकान, दुर्घटना , पेंशन, शिक्षा आदि|
यह एक्ट समाप्त होने से देश में कार्यरत 36 मज़दूर कल्याण बोर्ड भी ख़त्म हो जायेंगे| क्या सरकारें कभी इतनी संवेदनशील हो पाएंगी कि वह हर व्यक्ति को बराबरी का अधिकार दें | मज़दूरों को केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने ही त्रासदी के समय नियति के हवाले कर दिया|