लखनऊ: हैदराबाद विश्वविद्यालय में पांच दलित छात्रों के अवैधानिक निलंबन एवं उत्पीड़न के कारण रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस घटना को लेकर लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों के बड़े नेता दलित छात्रों के साथ संवेदना व्यक्त करने के लिए गए जिस से यह मुद्दा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरा परन्तु अपने आप को दलितों का मसीहा कहने वाली मायावती नहीं गयी।  उसने इस मुद्दे पर केवल एक ब्यान और एक टीम भेज कर अपनी फ़र्ज़ अदायगी कर दी।   इस का मुख्य कारण  उसे दलितों की बजाये सवर्णों के वोट की अधिक चिंता हैण् वह दलितों को तो अपना जातिगत बंधुया मान कर चलती है जिसे बहुत से दलित अंध.भक्त बन कर स्वीकार भी कर लेते हैं।  

अब यह विचारणीय बिंदु है कि क्या मायावाती समयाभाव के कारण हैदराबाद नहीं गयीं या फिर इस के पीछे कोई बड़ी राजनैतिक मजबूरी है।  इस का एक मुख्य कारण मायावती का भाजपा प्रेम है।  यह ज्ञातव्य है कि इस से पहले मायावती ने उत्तर प्रदेश में तीन बार भाजपा से गठजोड़ कर मुख्य मंत्री की कुर्सी हथियाई थी और आगे भी यदि ज़रुरत पड़ी तो मायावती को भाजपा से हाथ मिलाने में कोई गुरेज़ नहीं होगा।  यह भी उल्लेखनीय है मायावती ने जब उत्तर प्रदेश में भाजपा से हाथ मिलाया था तो उसने भाजपा के नेताओं को राखी बाँधी थी।  अटल विहारी वाजपयी ने उसे अपनी बेटी कहा था।  इतना ही नहीं 2002 में मायावती ने गुजरात जा कर मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था।  

मायावती के दिखावटी दलित प्रेम के कुछ मुख्य उदहारण भी विचारणीय हैं।  जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री थी तो उसने सवर्णों के दबाव में पेरियार मेला रद्द कर दिया था और उत्तर प्रदेश में कहीं भी पेरियार की मूर्ती नहीं लगायी।  इतना ही नहीं मायावती ने उत्तर प्रदेश में पेरियार की पुस्तक’सच्ची रामायण’ पर प्रतिबंध लगा दिया था।  इस से आगे बढ़ कर मायावती ने कांशी राम द्वारा बामसेफ के माध्यम से बनवाई गयी ‘तीसरी आज़ादी’ फिल्म भी प्रतिबंधित कर दी थी।  मायावती के दलित प्रेम की सब से दुखद परिघटना मायावती द्वारा दलितों की रक्षा के लिए बनाये गए ‘अनुसूचित जातिध्ज जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम’ के लागू करने पर रोक लगा देनी थी जिसे बाद में उच्च न्यायालय के आदेश पर रद्द करना पड़ा। 

क्या आज दलितों को मायावती सहित सभी दलित नेताओं से यह नहीं पूछना चाहिए कि जब दलित मारे जा रहे हैं या आत्म हत्याएं कर रहे हैं तो उनकी क्या भूमिका है।  क्या  उनके लिए दलित रोहित के आत्म हत्या नोट के अनुरूप केवल ‘वोट बैंक’ हैं या इस से कुछ और अधिक भी  दलित कब तक आंबेडकर के नाम पर इन स्वार्थी नेताओं द्वारा बेवकूफ बनते रहेंगे।  ज़रा डॉ आंबेडकर की व्यक्ति पूजा और अंध भक्ति की चेतावनी पर मनन कीजिये और सोचिये कि इन नेताओं ने दलित राजनीति और दलित आन्दोलन को किस गर्त में पहुंचा दिया है।  मेरे विचार में यही रोहित की शाहदत को सच्ची श्रद्धांजली होगी।