कांग्रेसी-वामपंथी या अपने तरह की बुद्धिजीविता
मीनाक्षी लेखी
भारत में चूंकि पिछले 65 वर्षों में अधिकतर समय में जवाहर लाल नेहरू और उनके परिवार ने ही शासन किया, इसलिए देश की शासन व्यवस्था व संवैधानिक संस्थाओं पर भी कांग्रेसी विचारधारा के कार्यकर्ताओं ने उसी तरह नियंत्रण रखा जैसे वे ही इन विषयों के विशेषज्ञ हों। इस दौरान भारत में ब्रिटिश तरीके का शासन रहा, जिसमें राष्ट्रीय मुख्यधारा के क्षेत्र चाहें वे राजनीतिक हों, संचार के क्षेत्र हों या इसी प्रकार अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र, इन सभी की सेवाओं में भाड़े पर वैचारिक सिपाही लगाये गये।
महत्वपूर्ण पदों पर अपने प्रार्थियों को रखना, समय-समय पर उनको पदोन्नति, वित्तीय पोषण, उनके लिए सामाजिक-राजनीतिक पुरस्कार शुरू करना व किसी भी प्रकार के मतभेद को दबाना (हतोत्साहित करना)-ये सभी काम एक प्रकार के छद्म बुद्धिजीवियों, व्यापार व सामाजिक संगठनों का जाल बुनने के ही प्रमुख घटक रहे हैं।
नेहरू ने बाम चरम पंथियों को अनदेखा किया। इन्हीं चरमपंथियों ने शैक्षणिक संस्थाओं पर कब्जा कर वहां पर माक्र्सवादी विचारधारा को महत्व दिया। पिछले 60 वर्षों से चली आ रही इस प्रकार की सरकार द्वारा पोषित व्याख्या ने संस्थाओं के सहिष्णु चरित्र को नष्ट किया और हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को दबाया। इसलिए जब कांग्रेस पार्टी का दशांश हुआ और नरेन्द्र मोदी सरकार 2014 में सत्ता में आयी तो सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि विघ्नकारी ताकतें जैसे-कांग्रेसी-कम्युनिस्टी विचारधारा व व्यवस्थापक को हटाना व काबू में करना। अभी हाल में जिन इतिहासकारों, फिल्मकारों, लेखकों-वैज्ञानिकों तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने अपने-अपने पुरस्कार वापस किये हैं, उनमें से अधिकांश कांग्रेसी-कम्युनिस्टी विचारधारा के प्रति वफादार रहे हैं। ऐसे विशेष लाभान्वित लोगों को केवल सम्मान तक सीमित नहीं रखा गया बल्कि देश व प्रदेश की स्वयंसेवी संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थाओं, सरकारी प्रकाशकों व स्वायत्त निकाय जैसे आईसीएचआर, एफटीआईआई, एनएफडीसी, सीएसएफआई, साहित्य-संगीत नाटक अकादमी के द्वारा करदाताओं के पैसे की भी लूट की गयी।
ज्यादातर सम्मान व पुरस्कार उन कांग्रेसी विचारधारा के लोगों को दिया गया जो पाश्चात्य संस्कृति व नेहरू परिवार के प्रति वफादार रहे। इन लेखकों, फिल्मकारों व वैज्ञानिकों ने अपने संबंधित क्षेत्रों में लगभग कुछ नहीं किया बल्कि जन व्यवस्था, शांति और सौहार्द को भी प्रभावित किया है। इन अधिकतम पुरस्कारों के प्राप्त कर्ताओं के चयन के लिए कांग्रेसी-कम्युनिस्टी विचारधारा के लोगों ने जो समितियां गठित कीं, वे ईमानदार नहीं रहीं क्योंकि उन्होंने अन्य हजारों पात्र व्यक्तियों को पहचान से उपेक्षित रखा।
यह समूह कांग्रेसी विचारधारा व उन सभी पंच सितारा समाजवादियों व वामपंथियों में फैला है जो पाश्चात्य संस्कृति से संबंध रखते हैं और भारत को उसकी संस्कृति से दूर कर रहे हैं। जब ये लोकतांत्रिक तरीके से हारते हैं, तब संचार, नौकरशाही व अन्य प्रकार के क्षेत्रों में भाड़े पर पोषित सिपाहियों का प्रयोग विकासोन्मुखी निर्वाचित सरकार को अस्थिर करने के लिए करते हैं।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार 2011 से 2014 के बीच में 2715 साम्प्रदायिक घटनाएं हुई हैं अर्थात प्रतिमाह औसतन 57 वारदातें। इनमें 85 प्रतिशत घटनाएं आठ राज्यों-बिहार, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र राजस्थान और उत्तर प्रदेश में हुईं। ये प्रदेश किसी एक दल द्वारा शासित न होकर विभिन्न राजनीतिक दलों के शासन में रहे हैं। आठ राज्य ऐसे भी रहे, जहां चार वर्षों में ऐसी कोई भी घटना की सूचना नहीं आयी। आठ उत्तर पूर्वी राज्यों में से सात में एक भी साम्प्रदायिक घटना की खबर नहीं आयी। भारत में औसतन 57 साम्प्रदायिक घटनाएं प्रतिमाह पिछले चार वर्षों में हुईं। उनमें 85 प्रतिशत घटनाएं केवल सात राज्यों में हुईं जो या तो कांग्रेस या गैर भाजपा शासित प्रदेश थे।
देश में साम्प्रदायिक घटनाओं की संख्या में पिछले दो वर्षों में कमी आयी है। वर्ष 2014-2015 में 644 ऐसी घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। यह जानकारी अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्रीय राज्य मंत्री मुख्तार अव्वास नकवी ने राज्यसभा में दी है। उन्होंने बताया कि सूचनाओं के मुताबिक साम्प्रदायिक घटनाओं की संख्या में पिछले दो वर्षों में कमी आयी है।
साहित्यकारों व कलाकारों ने जिन कथित परिस्थितियों के विरोध में अपने सम्मान लौटाए हैं, वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि उपर्युक्त तथ्य कथित परिस्थितियों के विपरीत हैं। चाहे वो 1984 में हुए सिक्खों का नरसंहार हो, नीली सामूहिक संहार हो, मेरठ, हासिमपुरा या मुजफ्फरनगर की घटनाएं हों, इन संबंधित राज्यों में सत्तारूढ़ गैर भाजपा दलों द्वारा साम्प्रदायिक दंगे योजनाबद्ध तरीके से कराये गये। कांग्रेस, कम्युनिस्ट या समाजवादी पार्टी सभी घोर साम्प्रदायिक हैं। गुजरात में घटित साम्प्रदायिक नरसंहार में भी भाजपा विरोधी संगठनों की भूमिका रही है। हाल ही में घटित दादरी, मूदबीदरी, कलबुर्गी और गोविन्द पंसारे की हत्या का मामला भी वहीं का है जहां प्रदेश में गैर भाजपा की सरकार रही। चूंकि कानून-व्यवस्था प्रदेश का विषय होता है, इसलिए इन घटनाओं की सम्पूर्ण जिम्मेदारी संबंधित प्रदेश सरकारों की बनती है।
देश में जब कांग्रेसी-कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों द्वारा साम्प्रदायिक माहौल व जाति-भेद का आवेश फैलाया जा रहा था तब ये बुद्धिजीवी कुंभकर्ण पिछले 65 वर्षों में रामराज्य के भ्रम के सपने में सोये हुए थे। जिस प्रकार भगवान राम के हाथों ने कुंभकर्ण की मौत में बुराई पर अच्छाई की जीत सुनिश्चित की, उसी प्रकार ये आज के कुंभकर्ण हमारे प्यारे देश की जनता के द्वारा चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हटाये जा चुके हैं।
क्या ये कांग्रेसी-वामपंथी उस वक्त अपने सम्मान नहीं लौटा पा रहे थे जब देश में आपातकाल लागू किया गया या आईटी एक्ट (66ए) का दुरूपयोग किया गया या जब तस्लीमा नसरीन का मुद्दा उठा। क्या कभी इन लोगों ने शाह कमीशन की रिपोर्ट के बारे में पूछने की तकलीफ की। इनका गुस्सा तब कहां गया था जब हजारों कश्मीरी महिलाओं का बलात्कार हुआ और लाखों लोगों को घाटी से भगाया गया। क्या ये इन स्वघोषित बुद्धिजीवियों की भावात्मक प्रतिक्रिया असफल कांग्रेस पार्टी की हार तथा उसके परिणाम स्वरूप सरकार से मिलने वाले संरक्षण के रुक जाने पर है?
भाजपा विरोधी अपनी पूरी शक्ति के साथ नरेन्द्र मोदी सरकार का अपमान कर रहे हैं। इनका उद्देश्य केन्द्र सरकार के विकास कार्यों पर कीचड़ उछालना व देश की छवि को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर धूमिल करना है। इनका कार्य विकास की राह में रोड़े अटकाना रहा है जिस वजह से ये देश के कभी शुभचिंतक नहीं हैं। ये लोग इस तथ्य को सहन नहीं कर पा रहे कि भाजपा सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर सत्ता में आयी है। भारत की सरकार हालांकि सामाजिक-आर्थिक सुधार पर केन्द्रित रही है और मजबूत विदेश नीति के लिए कदम उठाये गये हैं। यह विकास का एजेण्डा इस प्रकार की पोषित परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होगा। आधुनिक युग के ये कुंभकर्ण चाहें यूं ही रोते-पीटते रहें, पर जनता अब जाग चुकी है। वही सुबह आज क्षितिज पर है।