आंकड़ों और प्रयोगों ने किया भारतीय कृषि का सत्यानाश
सत्यव्रत त्रिपाठी
भारत में ऋग्वैदिक काल से ही कृषि पारिवारिक उद्योग रहा है । लोगों को कृषि संबंधी जो अनुभव होते रहें हैं उन्हें वे अपने बच्चों को बताते रहे हैं और उनके अनुभव पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचलित होते रहे। उन अनुभवों ने कालांतर में लोकोक्तियों और कहावतों का रूप धारण कर लिया जो विविध भाषाभाषियों के बीच किसी न किसी कृषि पंडित के नाम प्रचलित है और किसानों जिह्वा पर बने हुए हैं। हिंदी भाषाभाषियों के बीच ये घाघ और भड्डरी के नाम से प्रसिद्ध है। उनके ये अनुभव आघुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य मे खरे उतरे हैं। लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम विदेशियों की तरफ आकृष्ट होने लगे ।
1960 के बाद उच्च उपज बीज हाइब्रिड का प्रयोग शुरु हुआ। इससे सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ गया। इस कृषि में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ने लगी। इसके साथ ही गेहूँ और चावल के उत्पादन में काफी वृद्धी हुई जिस कारण इसे हरित क्रांति भी कहा गया। पंजाब हरियाणा और उत्तरप्रदेश के किसानों ने कृषि के आधुनिक तरिकों का सबसे पहले प्रयोग किया। आधुनिक कृषि विधियों ने प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन किया है। अब इसके दुष्परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं। उर्वरकों के अधिक प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता कम हो गई है। नलकूपों से सिंचाई के कारण भूमि जल के सतत निष्काषन से भूमिगत जलस्तर बहुत नीचे चला गया है भारत में सिंचाई का मतलब खेती और कृषि गतिविधियों के प्रयोजन के लिए भारतीय नदियों, तालाबों, कुओं, नहरों और अन्य कृत्रिम परियोजनाओं से पानी की आपूर्ति करना होता है। भारत जैसे देश में खेती करने की 64% भूमि मानसून पर निर्भर होती है। भारत में सिंचाई करने का आर्थिक महत्व है – उत्पादन में अस्थिरता को कम करना, कृषि उत्पादकता की उन्नती करना, मानसून पर निर्भरता को कम करना, खेती के अंतर्गत अधिक भूमि लाना, काम करने के अवसरों का सृजन करना, बिजली और परिवहन की सुविधा को बढ़ाना, बाढ़ और सूखे की रोकथाम को नियंत्रण मे करना।
आधे से भी कम लोग यानी सिर्फ साढ़े 45 प्रतिशत लोग ही कृषि पर निर्भर रह गये हैं। यह हालत कृषि के खोखलेपन को बताती है। सह कृषि के रुप में बागवानी, मत्स्य पालन, पशुपालन, कुक्कुट पालन, मधुमक्खी पालन तथा फूड प्रोसेसिंग आदि अनेक कार्य शामिल हैं जिनसे न सिर्फ पारम्परिक कृषि पर बोझ कम होता है बल्कि वे उत्पादों में भिन्नता लाते हैं और कृषि का विकल्प भी बनते हैं। अफसोस है कि इनमें से अधिकांश पदों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बैठे हुए हैं, जिन्हें खेती-बारी का कोई ज्ञान ही नहीं है। कृषि आज भी देश की प्राथमिक आवश्यकता है और संसद में पेश ताजा ऑंकड़ों के अनुसार देश के कुल 40 करोड़ 22 लाख श्रमिकों में लगभग 57 प्रतिशत लोग कृषि में ही समायोजित हैं ! स्थिति यह है कि देश में इस वक्त कोई किसान आयोग ही नहीं है। कृषि को जब तक लाभकारी नहीं बनाया जाएगा और किसानों को उनकी कृषि योग्य जमीन पर खेती करने के बदले एक निश्चित आमदनी की गारन्टी नहीं दी जायेगी, जैसा कि अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में है, तब तक किसानों को खेती से बाँधकर या खेती की तरफ मोड़कर नहीं किया जा सकता। खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाने के प्रयास इस तरह किये जाने चाहिए कि किसान धीरे-धीरे सरकारी अनुदान से मुक्त होकर खेती पर निर्भर रह सकें। भारतीय कृषि सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन योजना भर नहीं बल्कि एक समृध्द परम्परा रही है। इसे सामूहिक खेती के भरोसे भी नहीं छोड़ा जा सकता।
एक ऐसे समय में जब कृषि योग्य जमीन लगातार घट रही हो और उस पर निर्भर होने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही हो, यह जरुरी हो जाता है कि कृषि की ढाचागत व्यवस्था को नये सिरे से पारिभाषित किया जाय। देश की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये हमें कृषि क्षेत्र में 5 प्रतिशत से अधिक विकास दर की आवश्यकता है, जबकि अभी हम इसके आधो से भी पीछे हैं। ताजा ऑंकलन बताते हैं कि चालू वेर्ष में यह स्थिति बेहतर हो सकती है। कृषि विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले 15 वर्षों में खाद्यान्न संकट और बढ़ सकता है तथा उसका मुकाबला करने के लिये कृषि क्षेत्र को सिर्फ पारम्परिक खेती के भरोसे ही नहीं छोड़ा जा सकता। इसमें समावेषी कृषि तथा दुग्ध, फल और मांस जैसे कृषि आधारित कुटीर उद्योगों को शामिल किया जाना आवश्यक हो गया है। चालू बजट से पूर्व आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कृषि के बारे में चौंकाने वाले तथ्य पेश करते हुए बताया गया है कि दो दशक के भीतर कृषि योग्य जमीन में 28 लाख हैक्टेयर की कमी आ चुकी है। देश की आबादी के बड़े हिस्से की कृषि पर निर्भरता को देखते हुए यह तथ्य चिंताजनक हैं।
भारतीय कृषि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ विविधीकरण संभव है। यहाँ अगर छह प्रकार की ऋतुऐं हैं तो दर्जनों प्रकार की मिट्टी भी है, जो प्राय: हर प्रकार की फसल का उत्पादन यहाँ सुगम बनाती हैं। भारतीय उप महाद्वीप को छोड़कर विश्व में अन्यत्र यह संभव नहीं। बावजूद इसके भारतीय कृषि अभी बहुत कुछ पारम्परिक तौर-तरीकों पर ही निर्भर है। हालाँकि पारम्परिक तरीकों ने कृषि को चिंतामुक्त और टिकाऊ बना रखा था लेकिन छोटी होती जा रही जोत, आबादी की विस्मयकारी वृध्दि से उत्पन्न आवश्यकताऐं तथा समाज में बढ़ते धन के महत्त्व के कारण किसान भी अब पारम्परिक खेती के भरोसे नहीं रह सकता। इसी क्रम में यह कहा जा सकता है कि कृषि का आधुनिकीकरण भी पूर्णत सरकार पर ही निर्भर करता है। कृषि में हो रहे क्षरण और आने वाले दिनों की दिक्कतों का आभास तो बजट पूर्व आर्थिक समीक्षा में कराया गया है लेकिन उससे निपटने के उपायों के बारे में नहीं बताया गया है।
18 वीं सदी के प्रख्यात जनगणक थॉमस मैल्थस ने एक दिलचस्प भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि आने वाले समय में भुखमरी को रोका नहीं जा सकता क्योंकि आबादी ज्यामितीय तरीके से बढ़ रही है और खाद्यान्न उत्पादन अंकगणतीय तरीके से। मैल्थस के उक्त अनुमान की चाहे जितने तरीके से व्याख्या की जाय लेकिन दुनिया भर में इन दिनों जिस तरह खाद्यान्न संकट दिख रहा है, और जिस तरह इस संकट के हौव्वे की आड़ में मंहगाई बेरोकटोक बढ़ती जा रही है, उससे निपटने का आधारभूत तरीका कृषि व कृषि आधारित सहउत्पाद बढ़ाना ही हो सकता है। भारतीय कृषि की एक बिडम्बना यह भी है कि देश का सबसे बड़ा और अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होने के बावजूद यह अपने विषेशज्ञों पर नहीं बल्कि उन नौकरशहों पर निर्भर है जिनके बारे में यह मान लिया गया है कि देश की समस्त बीमारियों की एकमात्र दवा वही हैं। यह तथ्य चौंकाने वाले हैं कि महत्त्वपूर्ण कृषि नीतियॉ निर्धारित करनी वाली कुर्सियों पर कृषि विषेशज्ञ नहीं आई.ए.एस. अधिकारी बैठे हुए है! ऑल इन्डिया फेडरेशन ऑफ एग्रीकल्चर एसोसियेशन के एक प्रवक्ता का दावा है कि देश में ऐसे एक हजार पदों पर नौकरशह काबिज हैं।
जिस अन्नसुरक्षा को लेकर आज पूरा संसार विचलित है वह तो हमारी कृषि नीति की मुख्य रीढ़ थी। प्रत्येक गांव में केवल मानव ही नहीं पशुओं के लिए चरणोई और तालाब बनाए गए थे इतने प्रकार के अनाजों, दालें, तिलहनी फसलें, साग सब्जियों और फलों का जाल देशभर में फैला कम पानी में पकने वाली और कई बीमारियों को दूर रखने वाली हमारी शानदार फसलें जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो, कुटकी, तिवड़ा, तिल, अलसी, रामतिल, राजगिरा, कुलथी, कुट्टू आदि थे गांव-गांव में रोजगार देने वाला मोटे धागे का कपास, घानी, चक्की, चरखे, करघे, साबुन, तेल, दंतमंजन, सुतली, नारियल की रस्सी, चमड़े के जूते, आयुर्वेद की दवाइयां, हल, बक्खर, गेती, फावड़े, तगारी बनाने के उद्योग और फसलों से कच्चा माल निकालकर ग्रामोद्योग चलाया जाता था और वह सभी भी धेलाभर बिजली खर्च किए बिना मात्र मानव और पशुओं के श्रम से यदि हम भारत का इतिहास देखें तो पता चलता है कि अंग्रेजों ने अपने देश की मिलों का पेट भरने और व्यापार व्यवसाय बढ़ाने के लिए हमारी अन्नसुरक्षा के घेरे को तोड़ा। अनाज की जगह कपास, गन्ना, फूलों, मसालों और नील की खेती हमारे किसानों से करवाई। ये सब कुछ सालों साल चलता रहा और फिर जब देश में अकाल की स्थिति हुई तब भुखमरी के नाम पर मॅक्सिकन गेहूं के बौने बीज यहां लाकर बोए गए। उनकी पैदावार बढ़ाने, रासायनिक खाद, कीटनाशक और यंत्रों के उद्योग का जाल देश में फैला। इसका उल्टा असर ग्रामीण भारत पर पड़ा। खेती महंगी होने लगी। गांवों में पानी, लकड़ी, चारा और मजदूर कम होने लगे। गांव खाली होने लगे, शहरों की आबादी बढ़ी। इसी को विकास माना जाने लगा। महाविद्यालयों का काम मात्र इन फसलों की सुधारी गई किस्मों का प्रजनन और चयन तक सीमित होकर रह गया।
एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ाना है तो गांवों को खाली कराना ही होगा। इसके लिए अमरीका का उदाहरण देकर समझाया जाता है कि अमरीका में केवल एक फीसदी लोग यानी करीब सात लाख लोग कृषि कार्य में लगे हैं। इसके बावजूद अमरीका सबसे बड़ा कृषि उत्पादों की पैदावार वाला देश है। हमारे देश में सभी की मानसिकता को ऎसा बना दिया गया है कि लोग खेती को भुलाने की कोशिश में लगे हैं। हाल ही में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा था कि भारत का असली विकास तभी होगा जब लोगों को खेती से हटाकर उद्योगों से जोड़ा जाए। लेकिन जब फिर हम आंकड़ो की बात करते है तो बातें उलझ जाती हैं। जो लोग खेती से हटे वे मजदूर बना दिए गए जो किसान सबका पेट भरता है हम उसे ही खाद्य सुरक्षा देने की बात कर उसका मजाक उड़ाते है। जरा सोचिये किसी राजा को भिक्षा दी जा सकती है ?
यह कितना हास्यापद है कि हर जीवित प्राणी कृषि या सह – कृषि पर निर्भर है । फिर भी किसानो की हालात चिंताजनक है । किसान लाखों करोडो लोगों का पेट भरते हैं फिर भी हर जगह किसान को बेचारा कहा जाता है । क्या सरकारें किसान ओ अन्नदाता कहने या मुवावजा बाँटने के अलावा भी कुछ करती है ? क्यों नहीं किसान को हम फसल उत्पादक कहते जिसे अपने उत्पादन को बेंचने के लिए किसी साहूकार का मुंह न ताकना पड़े ! बाते तो कई है लेकिन जब तक सरकारें किसी बड़ी इच्छाशक्ति से काम नहीं करेगी तब तक हाल ऐसे ही रहेंगे । उम्मीद करिए आनेवाले दिनों में हालात सुधरें नहीं तो रोटी भी सुपर मार्किट से खरीदनी पड़ेगी ।