आंदोलित दलितों ने जानवरों को दफनाने का काम छोड़ा, बीमारी फैलने का खतरा

ऊना (गुजरात): गुजरात के अमरेली से 100 किलोमीटर दूर धोकड़वा गांव से कुछ आगे बढ़ते ही सड़ते हुए जानवरों की गंध महसूस होती है, जो आगे बढ़ने के साथ और तेज़ होती जाती है. यहां से ऊना की ओर जाने वाली सड़क पर जगह-जगह मरी हुई गायें दिखती हैं.

सड़क पर ही पास के गांव के निवासी विमल भाई बताते हैं कि सड़क पर कई दिन से वो मरी हुई गायें और जानवर देख रहे हैं. इन मरे जानवरों को पहले आसपास की दलित बस्तियों के लोग हटाया करते और खाल उतार कर उसे दफना दिया करते थे, लेकिन पिछले महीने ऊना में कुछ गौरक्षकों के द्वारा दलितों की पिटाई के बाद से भड़के आंदोलन से मरी गायों को हटाने वाला कोई नहीं है.

गुजरात में दलित आंदोलन पर हैं. आंदोलनकारियों का एक दल अहमदाबाद से मार्च करते हुए ऊना के रास्ते में है.
दलितों के आंदोलन की अगुवाई कर रहे लोगों ने समुदाय से अपील की है कि वो जानवरों को न दफनाएं. विमल भाई कहते हैं कि इसी कारण जगह-जगह जानवर मरे पड़े पड़े हैं, जिनसे बीमारियां फैलने का खतरा है.

धोकड़वा से कुछ दूर अम्बाड़ा गांव में भी यही हाल है. यहां गांव के भीतर हमें एक मरी गाय दिखी, जिसकी मौत कुछ देर पहले हुई थी. गांव के लोगों ने हमें बताया कि गैर-दलित खाल उतारने और दफनाने काम नहीं जानते और वो ऐसे हालात में ट्रैक्टर ट्रॉली में इन गायों को कुछ दूर फेंककर आ जाते हैं.
अम्बाड़ा के नरेश ने हमें गांव के बाहर ले जाकर 5 गायों के शव दिखाए, जो पिछले एक हफ्ते के दौरान मरी हैं. उनके मुताबिक तीन किलोमीटर के दायरे में करीब 15 गायें और दूसरे जानवर भी मरे पड़े हैं.

गुजरात के उना और इसके आसपास के इलाके में अच्छी नस्ल की गायें पाली जाती हैं और यहां दूध का कारोबार बड़े पैमाने पर होता है. यहां मुख्य रूप से गैर-दलित समुदाय के लोग पशुपालन का काम करते हैं और पहले दलित समुदाय के लोग मृत जानवरों की खाल आदि उतारने के बाद उन्हें दफनाने का काम किया करते थे. लेकिन जगह-जगह बिखरे जानवरों के शव आज कुछ अलग ही तस्वीर पेश कर रहे हैं.

ये असर दलितों की नाराज़गी और उससे पनपे सामाजिक असंतोष का है. दलितों का मार्च 15 अगस्त को ऊना पहुंच रहा है. मरे जानवरों की खाल उतारने का काम दलित समुदाय की रोजी-रोटी भी रहा है, लेकिन अभी वह आत्मसम्मान और सामाजिक न्याय की लड़ाई का रूप ले चुका है.