कोई किताब हो बस एक सा बयां देखा
ग़ज़ल —–
निगाहे शौक़ से जब जब भी आसमां देखा,
बस एक रंग में ठहरा हुआ धुआं देखा।
ख़ुद अपने दर्द से नाआशनाई जो रखते,
वो कहते दर्द में हर शख़्स को नेहां देखा।
तसव्वुरात में इक अक्स साथ रहता है,
नज़र में होता वही है जहाँ जहाँ देखा।
सितारे टूट के धरती पे आ गए जैसे,
तड़पते जुगनू को जब ज़ेरे आसमां देखा।
हर एक सफ़हे पे ख़ूने जिगर की लाली है,
कोई किताब हो बस एक सा बयां देखा।
वो झूठ मूठ की बातें बनाता रहता है,
जो माशरे को कहे हंसता शादमां देखा।
किसे पता है कहाँ पर किसी की मंज़िल है,
भटकता शहरे तमन्ना में कारवां देखा।
चुरा के नज़रें कोई कुछ कहे मगर सच है,
रुख़े हयात पे बस मौत का निशाँ देखा।
जहाँ जहाँ गया ' मेहदी ' दिखी वही सूरत,
हर इक दयार में उझड़ा सा आशियाँ देखा।
मेहदी अब्बास रिज़वी " मेहदी हल्लौरी "