तो क्या महिलाओं की आड़ में गायब हो रहे मुद्दे!
-रविश अहमद
जब पड़ोस में किसी महिला का उत्पीड़न या करुण कद्रण सुनाई देता है तो हम अपने टीवी सेट का वॉल्यूम बढ़ाकर बाद में पीड़ित महिला को सांत्वना देने की खानापूर्ति कर लेते हैं हां अगर प्रताड़ना देने वाला कमजोर वर्ग का है तो शायद मौके पर ही कुछ कर गुजर जाएं। अब #metoo के कैंपेन में हम सब किसी ना किसी रूप में भागीदार बने हैं मै भी इसी का एक हिस्सा हूं। लेकिन सच्चाई तो यही है कि हम सामाजिक तौर पर हर रूप में विफल होते होते ज़मीन के अंदर धंस चुके हैं। हमे महिला सुरक्षा और अधिकारों पर भी हिन्दू मुस्लिम रीति रिवाजों की बहस में मज़ा आता है जबकि वास्तविक धरातल पर यह मुद्दा तभी तक टिका हुआ है जब तक राजनीतिज्ञो को इसकी ज़रूरत रहेगी।
कोशिश कीजिए समझने की क्या महिला उत्पीडन अथवा छेड़छाड़ का मामला इस समाज में नया है, यहां छोटी अबोध बच्चियों को हैवानियत का शिकार बनाने की खबरें कुछ ही दिन गुज़रे तो बहस का मुद्दा थी, यहां कुछ ही दिन पहले सरकारी बालिका संरक्षण गृहों से लड़कियों के साथ दुष्कर्म और अमानवीय व्यवहार की घटनाओं पर हर कोई व्यथित था। हम उन मुद्दों पर क्या बदलाव लाने में सफल रहे यह सवाल निरुत्तर है। जब ये मामले बहस और सोशल मीडिया पर क्रांति कर रहे थे उससे पहले या उसके बाद कौन से मुद्दे आए जिन्होंने हमें इन संवेदनशील मामलों से भटकाया। यह सब कुछ ही तो हमे समझने की ज़रूरत है कि जब कठुआ और उन्नाव में बच्चियों के साथ बलात्कार की वीभत्स घटनाएं हुई और देश में विरोध का माहौल बना तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से जिन्ना का जिन्न बाहर आ गया। जिस वक़्त देवरिया और मुजफ्फरपुर के बालिका संरक्षण गृह के अमानवीय कृत्य सामने आए और हंगामा शुरू हुआ तो पूजा जी द्वारा सोशल मीडिया के क्रान्ति स्थल पर एयरटेल नामक मुद्दा उछाल दिया गया जिसे क्रांतिवीरों ने तत्काल लपका और जिन्ना का जिन्न फिर से बोतल में बंद। इसके अलावा तमाम मसले जिनको जनता महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मानकर आवाज़ बुलंद करने की कोशिश करती है तभी आगे पीछे से एक नया मुद्दा सामने आ जाता है।
वैसे हमारे देश में मुद्दों कि कभी कमी नहीं रही ठीक इसी तरह महिलाएं हमेशा से छेड़छाड़ और शोषण की शिकार रही हैं, यह नया नहीं है और हमेशा की तरह इस मुद्दे के भी किसी नए मामले के आने तक ही टिके रहने की उम्मीद है। हमे विचार इस बात पर करना होगा कि किस गंभीर मामले को दबाने के लिए यह शिगूफा छोड़ा गया है और यह प्रण भी लेने की आवशयकता है कि चाहे कितना भी हिन्दू मुस्लिम हो कितना भी ध्यान भटकाने का प्रयास हो लेकिन पूरी तरह किनारे पहुंचने से पहले इस मुहिम #metoo को रोकना नहीं है।
हम भारतीय बड़े भावुक होते हैं जल्द ही उत्तेजित भी हो जाते हैं बस इसी कारण कुछ लोग हमारा फायदा उठाते हैं और जब चाहे नए मसले में उलझाकर मुद्दों से ध्यान भटकाने में सफल हो जाते हैं।
महिला समाज को पुरुषों से सम्मान की आवश्यकता है, जब सम्मान होगा तो समानता भी होगी और किसी कानून से ज़्यादा सामाजिक धरातल पर इसके लिए अधिक प्रयास एवं संघर्ष की ज़रूरत है।