लखनऊ: समाजवादी चिन्तक व बौद्धिक सभा के अध्यक्ष दीपक मिश्र ने लालजी टंडन की पुस्तक ‘अनकहा लखनऊ’ को झूठ का पुलिंदा व इतिहास-द्रोही बताते हुए कहा कि भारतीय जनता पार्टी एवं लालजी टंडन को महान देशभक्त ‘भारत-रत्न’ पंडित गोविन्द वल्लभ पंत को परोक्ष रूप से धनलोलुप व देशद्रोही जमात का बताने के लिए सार्वजनिक रूप से माफी माँगनी चाहिए। श्री मिश्र ने कहा कि पृष्ठ संख्या 189 के पैरा-2 में श्री लालजी टंडन ने लिखा है कि पंत साहब ने सौ रुपए फीस के कारण काकोरी के नायकों का मुकदमा लड़ने से मना कर दिया था। यह एक कपोल कल्पित कल्प कथा है जो जान-बूझकर किसी षडयंत्र के तहत पंत जी की छवि कलंकित व लांक्षित करने के लिए रची गई है।

उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पंत जी की गरिमा, गुरुत्व व गौरव को खंडित करने के लिए लालजी टंडन जी ने ऐसी कहानी गढ़ी है जो तथ्यहीन एवं सत्य से परे है। यही नहीं पंडित नेहरू को भी पुस्तक में उस प्रकरण में घसीटने का असफल प्रयास किया गया है जिससे नेहरू जी का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था।
सच्चाई यह है कि काकोरी के नायकों का मुकदमा लड़ने वाले वकीलों में गोविन्द वल्लभ पंत भी थे। वे उस समय पंडित मोतीलाल नेहरू के जूनियर वकील के रूप में पंजीकृत थे। उन्हें यह दायित्व मोतीलाल नेहरू जी ने उनकी योग्यता, तार्किक क्षमता, देशभक्ति एवं देशभक्तों के प्रति अथाह प्रेम को दृष्टिगत रखते हुए दिया था। वकालत के अलावा पंतजी ने काकोरी के योद्धाओं की लड़ाई राजनीति के मोर्चे पर भी लड़ी थी। श्री पंत ने ही 6 अप्रैल 1927 को ब्रिटानिया हुकुमत से काकोरी के नायकों की सजा कम कराने की अपील की। 29 अक्टूबर 1927 को प्रिवी काउन्सिल में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान व काकोरी के अन्य नायकों का सवाल उठाया था। 17 दिसम्बर 1927 को पुनः उन्होंने प्रांतीय काउन्सिल में काकोरी के शहीदों को न्याय दिलाने के लिए यथासम्भव प्रयास किया।

तत्कालीन रिंक थियेटर वर्तमान में जीपीओ पार्क है वहाँ एक शिलापट लगा हुआ है जिसमें काकोरी के नायकों के साथ-साथ उनका निःशुल्क मुकदमा लड़ने वाले वकीलों में पंडित गोविन्द वल्लभ पंत का भी नाम उल्लिखित है।

काकोरी के नायकों पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान एवं हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के अध्यक्ष चन्द्रशेखर आजाद से जुड़े साहित्य भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि पंत जी काकोरी के नर-नाहरों के प्रबल व प्रतिबद्ध पैरोकार थे।

सौ रुपए की फीस के लिए पंत जी शहीदों का तो दूर वो आम आदमी की भी वकालत करना नहीं छोड़ सकते थे। लाखों रुपयों का खुला प्रलोभन छोड़कर पंत जी ने बेगारों का मुकदमा लड़ा था और 1921 में बेगारी पर रोक लगवाई थी। राष्ट्रीय विचारों के कारण ब्रिटानिया हुकुमत ने 1914 में काशीपुर स्थित उदयवीर राज हिन्दू इंटर कॉलेज पर पाबंदी लगा दी थी जिसे पंत जी ने ही 2500 रुपये देकर हटवाया था। यदि पंत जी धनलोलुप व सत्ताभिमुखी होते तो नैनी सत्याग्रह के दौरान संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) जैसे पद से इस्तीफा नहीं देते। वे रायबहादुर बद्री जोशी के नाती थे। उन्हें न तो धनाभाव था न ही धन लिप्सा।

पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की देशभक्ति पर अंग्रेजी हुकुमत के नुमाइंदे भी सवाल नहीं खड़ा कर सके, जो पाप टंडन जी की इतराती कलम ने कर दिया। ‘‘बयालिस की क्रांति’’, ‘‘नमक सत्याग्रह’’ समेत ‘‘रौलेट एक्ट का विरोध’’, ‘‘साइमन कमीशन का विरोध’’ आदि के दौरान जेल व पुलिस की असहनीय यातना सहने वाले पंत जी की देशभक्ति के कायल महामना पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू व डा0 लोहिया भी थे।
पंत जी को अपमानित करने वाली पुस्तक के लेखक, संपादक, व प्रकाशक के साथ-साथ विमोचकगण उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू, राज्यपाल राम नाईक, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ व विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित को भी पंत जी के प्रति लिखी गयी दुर्वाग्रही, अपुष्ट व तथ्यहीन पंक्तियों के लिए नैतिक आधार पर खेद प्रकट करना चाहिए।

श्री मिश्र ने आशंका व्यक्त की कि यह पुस्तक इतिहास को तोड़-मरोड़कर एकांगी बनाने की वर्षों से चल रही भाजपा की साजिश का हिस्सा है, इसलिए उन्हें नहीं लगता कि बिना पढ़े ही इतनी बड़ी हस्तियाँ इस पुस्तक के विमोचन की साक्षी बनी होंगी।