एक समाज सुधारक संत चल गया
आशीष वशिष्ठ
कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती का निधन हो गया। 83 वर्ष के आचार्य जी दक्षिण भारत की प्रसिद्व श्री कांची कोटि पीठम् के प्रमुख थे। आचार्य जी ने आध्यात्मिक क्षेत्र के साथ ही साथ समाज सेवा की क्षेत्र में भी अभूतपूर्व योगदान दिया। आचार्य जी के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे कई बार मिला। मैं जब भी उनसे मिला हमेशा उन्हें सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर पाया। आचार्य जी धर्म, राजनीति, समसामयिक घटनाक्रम के अलावा समाज उत्थान के विषयों में गहरी दिलचस्पी लेते थे। हिंदू धर्म की पारंपरिक मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांतों को मजबूत बनाने में उनके योगदान की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है। उनका जीवन पूरी तरह से धर्म, मानवसेवा, देश और देशवासियों को समर्पित था। नियम, संयम, अनुशासन और धर्म की डोर से बंधा सन्यासी दिन रात बस यही सोचा करता था कि देश, धर्म और मानव का उत्थान ओैर सेवा किस तरह की जाए। आचार्य जी में सादगी कूट-कूट कर भरी थी। कई भाषआंें के जानकार आचार्य जी से जो भी मिला वो उनका हो गया। उनका सदा मुस्कराता चेहरा और सकारात्मक ऊर्जा बरबस ही प्रत्येक को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। समाज सेवा को धर्म का अभिन्न अंग मानने वाले आचार्य जी ने पिछड़े, गरीब, दलित और महिलाओं के लिये कई कल्याणकारी कार्य किए।
आचार्य जी का जनम 18 जुलाई 1935 को हुआ था। जयेंद्र सरस्वती जी कांची मठ के 69वें शंकराचार्य थे। वे 1954 में शंकराचार्य बने थे। कांची मठ कई स्कूल, आंखों के अस्पताल चलाता है। इस मठ की स्थापना खुद आदि शंकराचार्य ने की थी। जयेंद्र सरस्वती 22 मार्च, 1954 को चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती स्वामिगल के उत्तराधिकारी घोषित हुए थे। 19 वर्ष की आयु में पीठ पर आसीन होने के बाद उन्होंने अपना अध्ययन, तप, देवताओं का आराधन और राष्ट्रीयता का पोषण- इन सबका इस प्रकार आचरण करके दिखाया कि वे स्वयं चलते-फिरते देवता के रूप में माने जाने लगे।
मुझे याद है वर्ष 1997 में शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती एवं श्री शंकर विजयेन्द्र सरस्वती जी भारत यात्रा के दौरान लखनऊ पधारे। नगर प्रवेश के समय हम सब ने उनका स्वागत लखनऊ पीजीआई के मुख्य द्वार पर किया। तब से मैं निरंतर उनके संपर्क में रहा और उनका आशीर्वाद मुझे प्राप्त होता रहा। लखनऊ में उनका प्रवास तीन दिन का था। यहां आचार्यगण सीतापुर रोड स्थित सीताराम गेस्ट हाउस में रूकेे। प्रवास के दौरान मैंने उन्हें मंत्री, संतरी से लेकर आम आदमी से एक समान व्यवहार करते हुए देखा। भारत यात्रा लगभग एक वर्ष तक चली। इस दौरान उत्तर भारत के कई नगरों में मुझे आचार्य जी के साथ यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ। दक्षिण भारतीय होने के बावजूद आचार्य जी देश के चारों कोने को बांधने की क्षमता रखते थे। उत्तर भारतीयां मिलते समय वो हिन्दी में ही वार्तालाप करते। पत्रकार उन्हें घेरे रहते और धर्म, अध्यात्म और सबसे बढ़कर राम मंदिर की चर्चा से जुड़े असंख्य प्रश्न पूछते। और आचार्य धर्मानुकूल एवं विधिसम्मत उत्तर देकरा उनका जिज्ञासा शांत करते।
भारत यात्रा के दौरान शंकराचार्य जी का आगमन हरियाणा में मेरे गृहजनपद यमुना नगर में भी हुआ। आचार्य जी एवं उनके साथ चल रही करीब सौ लोगों की टोली को जगाधरी में एक धर्मशाला में ठहराया गया। दो दिन के प्रवास के दौरान मैंने आचार्य से अपने आवास पर चलने का आग्रह किया। आचार्य जी जहां ठहरे थे वहां से मेरे घर की दूरी करीब 8 किलोमीटर थी। मेरे वृद्ध दादा-दादी जो उनके दर्शन करने के वहां नहीं पहुंच पाये थे, और क्षेत्रवासी भी चाहते थे कि आचार्यगण के श्रीचरण हमारी भूमि को पावन करें। मेरे आग्रह पर पहले आचार्य जी मुस्कराए, और क्षणभर में जाने की हामी भर दी। उनके लिए हर व्यक्ति वीआईपी था, जन आग्रह का उन्होंने आजीवन आदर किया।
जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज को अंतःकरण में यह बात सालती थी कि हमारा देश अभी भी अनेक प्रकार से पिछड़ा हुआ है। इस देश की उन्नति के लिए जिस प्रकार अन्य लोगों को अपने कार्य करने चाहिए, उसी प्रकार पीठाधीशों को भी आगे आना चाहिए। धर्म के पीठ और मठ केवल पूजा-पाठ तक सीमित न रहें। वे शिक्षा, सेवा और समाज के उत्थान की अनेक प्रक्रियाओं में सहभागी बनकर उभरें। यह व्यावहारिक धर्म, यह क्रियाशील सेवामय धर्म उनको पुकार रहा था। इसीलिए उन्होंने 1987 में सोचा कि पीठ पर विराजमान रहकर यदि यह काम नहीं किया जा सकता तो पीठ का ही त्याग कर दिया जाए। देश की सामान्य जनता की सेवा की यह इतनी विलक्षण थी कि उन्होंने उसके लिए पीठ का त्याग भी करना चाहा। वे कुछ दिनों के लिए वहां से चले भी गए। किन्तु पूज्य परमाचार्य जी महाराज ने उन्हें बुलाकर कहा कि सेवा का यह कार्य आप पीठ पर विराजमान रहकर भी कर सकते हैं, और करना चाहिए भी। इसलिए पूज्य स्वामीजी महाराज ने पुनः अपने पद को स्वीकार किया और वे सेवा कार्यों में जुट गए।
जुलाई 1997 में हरिद्वार प्रवास के दौरान मुझे आचार्य जी के दर्शनों का सौभाग्य सप्तऋषि में प्राप्त हुआ। जब मैं आचार्य जी के दर्शन कर रहा था, तभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा एवं राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरो सिंह शेखावत का आगमन हुआ। मैं और मेरा मित्र पूर्व प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के आगमन पर उठकर कमरे से बाहर जाने लगे तो, आचार्य जी ने बैठे रहने का इशार किया। कुछ देर बाद आचार्य जी मुझे आदेश दिया कि देवगौड़ा जी एवं शेखावत जी को भोजन कराएं। मैंने और मेरे मित्र ने आचार्य जी के कमरे में ही दोनों महानुभावों भोजना परोसा। वास्तव में आचार्य जी के समक्ष सब एक समान थे। तभी तो वो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मेरे जैसे साधारण युवा में कोई भेद नहीं करते थे।
भारत यात्रा के दौरान आचार्य जी लखनऊ से सटे जनपद बाराबंकी भी गये। वहां एक विद्यालय में बालकों का सामूहिक उपनयन संस्कार आयोजित था। पर कुछ ब्रहमचारी जिनमें मैं भी शामिल था, वो उपनयन तो करवाना चाहते थे लेकिन मुण्डन करवाने नहीं चाहते थे। आचार्य जी के समक्ष ये समस्या रखी गई। उन्होंने तत्काल व्यवस्था देते हुए मुण्डन के स्थान पर कलम पर उस्तरा चलाने के निर्देश दिये। आचार्य जी से व्यवस्था प्राप्त होने के बाद सब ने राजीशुखी उपनयन करवाया। आचार्य जी धर्म को प्रेक्टिकल तौर पर देखते थे और देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार उसमें धर्मसम्मत परिवर्तन और संशोधन करने में हिचकते नहीं थी। 1997 की भारत यात्रा के दौरान आचार्य जी ने बाराबंकी, इलाहाबाद, शिमला आदि कई स्थानों पर सामूहिक उपनयन संस्कार का आयोजन करवाया।
राम मंदिर मसले को आचार्य जी सुलझाने में जीवन भर लगे रहे। आचार्य जी ने वर्ष 2010 में ये दावा किया था कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली तत्कालीन एनडीए सरकार अयोध्या विवाद के समाधान के बिल्कुल करीब पहुंच गई थी और इस उद्देश्य से एक कानून भी बनाने वाली थी। 2004 में हुई कांचीपुरम मंदिर के मैनेजर की हत्या के मामले में जयेंद्र सरस्वती का नाम आया था। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया गया। लगभग सभी धर्माचार्यों ने जयेन्द्र सरस्वती जी को बंदी बनाए जाने की घटना, उसकी प्रक्रिया तथा जेल में उनके साथ किए गए अशोभनीय दुव्र्यवहार आदि की घोर निंदा की थी। इस प्रकरण से सारा देश हिल गया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार एक पूर्व राष्ट्रपति तथा दो पूर्व प्रधानमंत्री उपवास एवं धरने में सहभागी होने सड़क पर आए। 2013 में उन्हें बरी कर दिया गया था।
स्वामी जयेन्द्र सरस्वती महाराज आदि शंकराचार्य के पश्चात् पहले ऐसे शंकराचार्य हैं जिन्होंने स्वयं कैलास मानसरोवर की यात्रा की। उनसे पूर्व कोई भी शंकराचार्य वहां पर नहीं गए थे। उनकी नेपाल की यात्रा में मैं स्वयं उनके साथ था और मैंने देखा कि छोटे-छोटे गांवों में, वहां की बिल्कुल छोटी बस्तियों में जाने का उनका आग्रह रहता था। समाज के लोगों से मिलना, उन लोगों के भीतर श्रद्धा का संचार करना, अपना कोई आचार्य है, यह विश्वास उनको दिलाना और सामान्य जनता को श्रद्धा के सूत्र में बांधना ही उनका कार्य रहा है।
आचार्य जी एकमात्र ऐसे पीठाधीश शंकराचार्य थे जो स्वयं पिछले वर्ष बंगलादेश की राजधानी ढाका गए, वहां जाकर एक मंदिर की सहायता की और वहां शंकराचार्य महाराज के नाम से एक अत्यन्त विशाल द्वार बनवाकर आए। उस मार्ग को स्वामीजी का नाम दिया गया है। एक वे ही ऐसे आचार्य हैं जिनको नेपाल और चीन सरकार स्वयं बुलाने के लिए उत्सुक रहती थी। अपने निरंतर सेवा कार्यों से, सुलझी हुई दृष्टि से, लोगों से मिलते हुए और प्राचीन परंपराओं का पालन करते हुए उन्होंने जो कार्य किया है, उसकी हमारे सांस्कृतिक इतिहास में कोई उपमा नहीं, कोई उदाहरण नहीं। विज्ञान की दिशा में कार्यरत भारतीय युवकों को भारत से बाहर जाने का मोह न हो, प्रतिभा का भारत से पलायन न हो, वह रुक जाए इसलिए सूचना प्रोद्यौगिकी (इन्फार्मेशन टेक्नालाजी) के कितने ही केन्द्र उन्होंने स्थापित किए।
इस धर्म की, इस संस्कृति, इस समाज की कितनी सेवा उन्होंने की उसकी एक लंबी सूची है। जब उनके द्वारा निर्मित संस्थाओं की सूची पर एक दृष्टि डालते हैं तो मन आश्चर्य से भर जाता है। वर्तमान में कांची मठ की 400 से अधिक संस्थाओं से पूरे देश में और विशेष रूप से तामिलनाडु में लोक कल्याणकारी कार्यों की श्रृंखला निर्माण करते समय पू. महाराजश्री ने वेदविद्या, बाल संस्कार, वनवासी सेवा, विपन्न सेवा, कृषि, पशु-संवर्धन, चित्रकला, संगीत इत्यादि कला, स्वास्थ्य एवं शिक्षा संस्थान जैसे सेवा कार्यों को आरंभ किया। उनके अधिकांश शिक्षा संस्थानों में सूचना प्रोद्यौगिकी को विशेष महत्व दिया गया।
आचार्य जी ने समाज की बेहतरी के अनेक कार्य किये। उन्होंने जहां लखनऊ में वैदिक पाठशाला शुरू करवाई वहीं अयोध्याा में मुस्लिम महिलाओं के लिए सिलाई सेंटर भी उनके प्रयासों से खुला। उन्होंने आम आदमी के दुख-दर्र्दे और परेशानियों को काफी करीब से देखा-समझा और उसकी बेहतरी के कार्य करते रहे। वे स्वयं निरंतर तपस्या में रत रहे। उनकी तपस्या के कारण पीठ का गौरव अत्यधिक बढ़ गया। आचार्य जी अपने उत्तराधिकारी के रूप में शंकराचार्य पूज्य श्री विजयेन्द्र सरस्वती जी महाराज का चयन किया।
अपने स्वयं के जीवन को अत्यन्त सादगीपूर्ण रखते हुए दिन में केवल एक बार अन्नग्रहण करना और एक ही वस्त्र पूरे शरीर को ढंकने के लिए प्रयोग करना। ऐसा सादा जीवन जीते हुए एक त्यागी सत्पुरुष ऐसी संस्थाओं का निर्माण कर उनका संचालन आजीवन करते रहे। आज आचार्य जी हम सब के बीच नहीं है, लेकिन उनके समाज कार्य, हिन्दू धर्म के प्रति अटूट आस्था एवं भारतीय संस्कृति एवं परंपरा को आगे बढ़ाने के प्रयासों का समस्त देशवासी आजीवन उऋण नहीं हो पाएंगे।