मोहम्मद आरिफ़ नगरामी

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माहे मोहर्रम की 10 वीं तारीख को कर्बला के मैदान में नवासए रसूल (स) हजरत हुसैन (रजि.) को उनके 72 साथियों के साथ शहीद कर दिया गया था। इस अलमिए की याद में तमाम दुनिया के मुसलमान अपनी अपनी तरह और अपने अपने अंदाज में हरत हुसैन (रजि.) की शहादत का सोग मनाते हैं। अवध की सलतनत के कयाम से पहले लखनऊ वाले मोहर्रम के दस दिनों तक शहादते हुसैन (रजि.) का सोग अपने अंदाज और तरीके से मनाते थे। उस जमाने में भी ताजिए बनते थे और रखे जाते थे। यह बात काबिले तहरीर है कि ताजिया खालिस हिंदुस्तानी चीज है कहा जाता है कि तैमूर शाह ने हिंदुसतान में अपने कयाम के दौरान ताजिए की बुनियाद डाली थी अवध के हाकिम ईरी नस्ल के थे और ‘‘शिया’’ अकीदत के मानने वाले थे। उनको हजरत हुसैन (रजि.) की अजादारी से बहुत शुगफ़ था इसलिए अवध की हुकूमत कायम होते ही जदीद तर्ज की अजादारी का आगाज हो गया। आसिफ उद दौला ने जब लखनऊ को राजधानी बनाया तो कुछ ही मुद्दत के बाद दरबारी मजहब ‘‘शिया’’ हो गया। आसिफ उद दौला के दौर मंे मोहर्रम में अजादारी का सिलसिला दस दिनों तक जारी रहता था और मोहर्रम की 12वीं तारीख को सोग नशीनी की मुद्दत खत्म हो जाती थी। यही दस्तूर आसिफ उद दौला सआदत अली खां और गाजी उद्दीन हैदर के जमाने तक जारी रहा। गाजी उद्दीन हैदर के साहबजादे नसीर उद्दीन हैदर जब अवध के बादशाह बने तो उनकी मालिका का उमूरे ममलिकत में दखल काफी बढ़ गया। वह कट्टर किस्म की मजहबी खातून थी। यह उन्हीं का असर था कि बादशाह सलामत ने अजादारी के दिनों में तौसीअ करके के उसकी मुद्दत 20 सफर तक बढ़ा दी। वाजिद अली शाह को भी अजादारी से काफी दिलचस्पी थी, वह शबे आशूर अवाम के घरों में जाकर ताजिया खानों की जियारत करते और हर ताजिया खाने में चढ़ावा चढ़ाते थे एक तो एक आम आदमी के घर बादशाह का तशरीफ लाना और दूसरी तरफ चढ़ावे के रूप में एक बड़ी रकम का हासिल होने से लखनऊ के घरों में ताजिया रखने की रसम को बहुत फरोग हासिल हुआ।

वाजिद अली शाह के जमाने सोग नशीनी की मुद्दत में तौसीअ करके 8 रबी उल अव्वल तक बढ़ा दिया गया और वहीं चलन आज तक बरकरार है और इस तरह लखनऊ की अजादारी की मुद्दत अब दो माह और आठ दिन है। बादशाहों की सरपरस्ती की वजह से लखनऊ में अजादारी को बहुत ज्यादा मकबूलियत हासिल हुई। लखनऊ का हर शहरी मोहर्रम का चांद नजर आते ही अजादार नजर आने लगता था और खुद वाजिद अली शाह मोहर्रम का चांद देखने के बाद सब्ज लिबास जेब तन कर लिया करते थे और तमाम मुलाजमीन सियाह पोश हो जाते थे। घर घर ताजियादारी होती थी। 20 वीं सदी के अवायल मंे लखनऊ का मोहर्रम अपने आप में एक मिसाल था। यह कहना गलत ना होगा कि अजादारी के सिलसिले में जितने रस्म व रवाज लखनऊ में रायज थे।। उनका दसवां हिस्सा भी किसी दूसरी जगह या दूसरे मुल्क यहां तक कर्बला में भी जहां हजरत हुसैन का मजार है कोई अमल दरआमद नहीं हुआ।

नवाब आसिफ उद दौला ने लखनऊ में अपने लिए पहले एक इमामबाड़ा ठाकुरगज में बनवाया था जो तामीर हो जाने के बाद उनको पसंद ना आया, इमामबाड़ा उन्होंने अपने ख्वाजा सरा मियां अलास को इनायत कर दिया था और अब उन्हीं के नाम से मौसूम है। आसिफ उद दौला ने फिर दूसरा इमाम बाड़ा तामीर (खर्च) को वसीअ किया अल्लाह तआला सारा साल उसपर रिज्क की वुसअत फराखी (ज्यादती) फरमाता है। हजरत सुफियान सूरी ने फरमाया कि हमने इसका तजुर्बा किया तो इसे बिल्कुल ऐसे ही पाया। कुशादगी रिज्क वाली हदीसें मुख्तलिफ रिवायतों से साथ मिलती हैं, रिवायात की कसरत इस हदीस की सेहत को साबित करती है।

यौमे आशूरा और वाक्या कर्बलाः- यौमे आशूरा माहे मोहर्रमुल हराम का दसवां दिन फजीलतों और बरकतों से बरअक्स अपने अंदर एक बिल्कुल मुख्तलिफ पहलू भी रखता है। कैसा अजीब इत्तेफाक हे कि इस दिन नबी करीम (सल0) के छोटे नवासे हजरत हुसैन (रजि0) को मैदाने कर्बला में शहीद कर दिया गया। नबी करीम (सल0) ने एक बार निहायत शफकत आमेज लहजे में इरशाद फरमाया कि हसन और हुसैन मेरे लिए दो महक (खुशबू) दार फूल की मानिन्द हैं। नबी करीम (सल0) के इतने ज्यादा महबूब इन दोनों नवासों में हजरत हुसैन (रजि0) को नबी करीम (सल0) की वफात के कम व बेश पचास साल के अर्से के बाद साठ हिजरी में दस मोहर्रम को शहीद कर दिया गया। आखिर कैसा था वह बरगुजीदा अल्लाह का बंदा जिसने बातिल हुक्मरानों के आगे सर न झुकाया बेयार व मददगार हो जाने के बावजूद अल्लाह के शैदाई ने महज अपने रब से दिल लगाए हुए शहीद हो जाने को निहायत जवांमर्दी के साथ कुबूल कर लिया और अपने बाद आने वाली उम्मत के सामने यह मिसाल पेश कर दी कि बातिल कुवतें और तागूती ताकतें इसलिए नहीं हुआ करती कि उम्मते मुस्लेमा का कोई फर्द उन से खौफ खाकर उनके सामने झुकने को तैयार हो जाए गवारा कर ले। उम्मते मुस्लेमा के हर फर्द का तो यही अमी होना कि वह बातिल से लड़कर सिर्फ हक की सरबुलंदी की दौड़-धूप में लगा रहे और अल्लाह तआला के आगे सर झुकाए। वाक्या कर्बला के इस वाजेह पैगाम से हमें अपने आप को मालामाल करना चाहिए और इस तारीखसाज मुबारक दिन को खेल तमाशा में नहीं गुजारना चाहिए। क्योंकि इस दिन को ऐसी से निसबत है जिस की कुर्बानी मिल्लते इस्लामिया को मातम व नोहा ख्वानी की तरफ दावत देती है बल्कि वह दर्से इबरत देती है कि अपने निजामे हयात के उसूलों पर कायम व साबित कदम रहें और अल्लाह की बारगाह में यकीन व ईमान जज्बा ईसार और उम्मीद व रजा के अजीम सरमाया हयात कोे पेश करते रहें।

लखनऊ के नवाबी अहद के एहलियाने लखनऊ माहे मोहर्रम में बेहद सादा, सस्ते, काले या सब्ज रंग क कपड़े पहनते थे, सब्ज रंग को तरजीह दी जाती थी क्योंकि यह रंग आले रसूल से मंसूब है। 5वीं मोहर्रम को लखनऊ में बच्चे ‘‘दरे हुसैन’’ के फकीर बनाए जाते थे। गली में झोली डालकर हाजरीन से भी मांगते थे जो रकम जमा होती वह गुरबा व मसाकीन में तकसीम कर दी जाती। यह रस्म शायद वाकिये कर्बला की याद को ताजा करना था जहां हुसैन के बच्चे खाने के एक एक दाने और पानी के एकए करत को तरस गये थे। अजादारी की इन्हीं मरासिम में एक बड़ी लतीफ रस्म 8वीं मोहर्रम को अदा की जाती थी, उस रोज दूध और शरबत पर हजरत अब्बास की नजर दिलाई जाती थी, हजरत अब्बास मैदाने जंग में अपनी भतीजी यानी हजरत हुसैन की प्यासी साहबजादी के लिए पानी लेने गये थे। उनके हमराह मश्क थी। वह पानी ना पी सके और शहीद कर दिये गये। उन्हीं की याद में यह रस्म अदा होती थी। नजर दिया हुआ दूध और शरबत एक मश्क मंे भर दिया जाता था और वह मश्कबच्चों के कांधों पर उनको भिश्ती बनाया जाता था। बच्चों के दूसरे हाथ में एक छोटा सा कटोरा रहता था जिसमें वह थोड़ा थोड़ा दूध व शरबत उडेल कर लोगों को पिलाते थे।

मोहर्रम की 7वीं तारीख हजरत कासिम बिन हसन के लिए हमेशा में मखसूस रही है। हजरत कासिम की उम्र रोजे आशूर नौ साल बताई गई है। हजरत कासिम हजरत हसन (रजि.) के बेटे और हजरत हुसैन (रजि.) के भतीजे थे। हजरत हुसैन ने अपने बड़े भाई की वसीयत पूरा करने के लिए अपने भतीजे का निकाह अपनी साहबजादी से शबे आशूर कर दिया था। 7वीं मोहर्रम को उनका गम बड़े जोर शोर से मनाया जाता है और उनकी ऊरूसी की याद ताजा की जाती है। एक बड़े बर्तन में एक ज्यादा सीनियों में पिसी हुई मेहंदी भरी जाती थी और उस पर बड़ी बड़ी शमएंें रोशन की जाती थी। साथ ही दूध और मलीदे पर हजरत कासिम की नज्र होती थी। सातवीं मोहर्रम की तरह 8वीं मोहर्रम भी हरत अब्बास अलमदार के लिए मखसूस रही है। हजरत अब्बास, हजरत हुसैन के मुख्तलिफुल वतन छोटे भाई थे। बेहद वफा शआर थे। रोजे आशूर हजरत हुसैन ने उनको अपनी फौज का अलम देकर लश्कर का सियाह सालार बनाया था। आपकी शहादत दरयाए फुरात के किनारे वाके हुई थी। हजरत अब्बास के नाम का अलम मखसूस तर्ज का होता ळै हर इमामबाड़े में यह अलम सबसे अलाहदा और दूसरे अलमों के मुकाबिले में बुलंद होता है। इस अलम की अजमत का एहसास हर अजादार के दिल में हैबत की हद तक तारी रहता है। 8वीं मोहर्रम को दिन गुजर के शाम के वक्त एक जमाने में बहुत बड़े पैमाने पर हजरत अब्बास की हाजरी होती थी। बेहतरीन बड़ी बड़ी नफीस शीरमालों पर कबाब मसाला और पनीर रख कर बड़ी काब में हजरत अब्बास की नज्र उन्हीं से मंसूब अलम के नीचे हुआ करती थी जो हाजरी कहलाती थी। उसी शीर माल और कबाब के बेशुमार हिस्से लोगों के घरों पर दिन ही में तकसीम हो जाया करते थे, यह हाजरी हर इमाम बाड़े को हजरत अब्बास के नाम से कुछ ऐसा मुनसलिक कर दिया था कि 8वीं मोहर्रम को मजालिस में शीरमाल की तकसीम होती है। असल शीरमाल जो खुशबू रंग और जायके की हामिल थी तकरीबन 50 सालों से नहीं मिलती है।

नवाबी दौर में 9वीं मोहर्रम का दिन गिरिया व बुका जो लिए मखसूस था जब दिन गुजर कर रात आती थी तो पुराने लखनऊ में हलचल मच जाती थी, हर शिया घराना नौ दिन पहले ही अजा खाना रहता था। हर गली कूचे मंे रात भर आमद व रफत रहती थी। हर इमामबाड़े में शबे आशूर आराइश व जेबाइश दो बाला हो जाती थी और रोशनी का एहतिमाम तकमील तक पहुंचा दिया जाता था। शाही इमाम बाड़ों में 8वीं और 9वीं दोनों तारीखों में जबरदस्त रोशनी होती थी, इमामबाड़ों में सोने चांदी के अलमों की चमक कारचोबी और जरबफती टपकों की दमक और बिल्लोर की तरह शफ्फाफ झाड़ों और फानूसों से छनती हुई रोशनी और हर तरफ बेपनाह रोशनी को देखकर आंखों मंें चका चैद होने लगती थी। इस रात में ख्वास व अवाम अपने अपने अजा खानों में और ताजिया खानों मंे ज्यादा से ज्यादा रोशनी करते थे। एहाजियाने लखनऊ यही समझते थे कि हजरत हुसैन पहली मोहर्रम से उन्हीं के यहां मेहमान थे और अब उनकी रूखसत करने का वक्त आ गया था। शबे आशूर उनके तसव्वुर में शबे रूखसत हमाम थी।

रोशे आशूर तुलूए आफताब के बाद ही से ताजिए उठने की धमा धमी शुरू हो जाती थी जहां से ताजिया निकलता यह मालूम होता था कि भरे घर से जनाजा निकल रहा है और इस जनाजे को अजीब व अकारिब धूम से उठाना चाहते है। शिया मुसलमान आम तौर से कोई दुनियावी काम रोजे आशूर नहीं करते थे दिन भर फाका करते प्यासे रहते डली तंबाकू तक नहीं खाते थे। खामोशी के साथ सर व पा बरहना घरों से निकल कर अपने ताजियों के साथ या दूसरे ताजियों की रास्ते में जियारत करते हुए कर्बला पहुंच जाते थे और आमूले आशूरा करके सारा वक्त गम में गुजारते थे। अमायदीने शहर शाहजदगान और रईस लोग रोजे आशूरा बाहर नहीं निकलते थे वह अपने महल सरावों में किसी तनहाई के मुकाम पर सारा दिन गुजारते थे। अलबत्ता फाका शिकनी के वकत अपने अपने इमाम बाड़ों में फाका शिकनी कराते और खाना खिलाते थे। उस जमाने में हर खाना जायका और खुश रंग पकता था और अनवा व अकसाम की गिजाए मौजूद रहती थी। लेकिन उस दिन यह ख्याल रखा जाता था कि गिजाए सादा और बेकैफ हो। इस लिए रईसों के दस्तख्वान पर सिर्फ बाकर खानी, सालन कबाब आर दाल चावल होता था। यही भी ख्याल रखा जाता था कि उस दिन दस्तरख्वान पर कोई मीठी डिश ना आये जिन मखसूस चीजों पर इमाम की नज्र होती थी वह नान जौ साग दूध शरबत पर होती थी। नज्र की प्लेट रईस के सामने रखी जाती थी व अपनी मर्जी के मुताबिक दूसरों को थोड़ा तबरूर्क चखा देते थे फिर खाना शुरू होता था। लखनऊ के बड़े इमामबाड़ों में सादा पुलाव से फाका शिकनी कराई जाती थी। अलबत्ता लखनऊ के शुरफा और अवाम के घरों में ‘‘सत नजे’’ से फाका तोड़ा जाता था। यह गिजा सात किस्म की अजनास को झून कर तैयार होती थी। यह गिजा उस वाकिय की याद ताजा करती है कि हजरत हुसैन की शहादत के बाद खेमों में आग लगा दी गई थी और अजनास की किस्म का जो कुछ भी था सब भुन गया था। ‘‘सत नजे’’ के साथ असल गिजा खड़े मसूर की दाल और चावल होते थे यह गिजा आज तक रायज है।

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