(आलेख : बादल सरोज)

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जिस तरह शासक वर्ग दमन और क्रूरता के अपने वर्चस्व को कायम करने के नए नए तरीके और औजार ढूंढता और आजमाता रहता है, उसी तरह अवाम भी उसके विरोध और प्रतिरोध के नए-नए माध्यम और औजार तलाश लेता है। सफ़दर हाशमी ने इसे दर्ज करते हुए कहा था कि “नुक्कड़ नाटक देखते समय किसी दृश्य या संवाद पर जब दर्शक हंसता या ताली बजाता है, तब एक तरह से वह भी प्रतिरोध की कार्यवाही में हिस्सा ले रहा होता है, अपना विरोध व्यक्त  करा रहा होता है।“ 17 अगस्त को दिल्ली हवाई अड्डे से हरियाणा के चरखी दादरी जिले के गाँव बलाली तक दोपहर से आधी रात तक जो हुआ, वह इसी तरह का प्रतिरोध था ; पेरिस से लौटी विनेश फोगाट की कोई सवा सौ किलोमीटर की यात्रा 13 घंटे में पूरी हो पाई, क्योंकि 100 से ज्यादा स्थानों पर स्वतःस्फूर्त तरीके से उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। भारत के किसी भी खिलाड़ी के अब तक हुए स्वागतों की तुलना में यह सचमुच असाधारण था। ऐसा स्वागत उन खिलाड़ियों को भी नसीब नहीं हुआ था, जो पेरिस ओलम्पिक से 6 मेडल्स जीतकर लौटे थे। ज्यादा विशेष इसलिए भी था कि यह भीड़ उस खिलाड़ी के लिए उमड़ी थी, जो 100 ग्राम हादसे के चलते इस बार कोई मैडल जीतकर नहीं लौटी थी। यह स्वागत विनेश के प्रति सहानुभूति या हमदर्दी से ज्यादा उनके साथ पेरिस सहित कुल मिलाकर हुए बर्ताव के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्ति का एक प्रकार था। इस लाड़, प्यार और सत्कार का वजन इन 12-13 घंटों में मिले रुपयों, उपहारों और दो गाड़ियां भर कर भेंट की गयी गदाओं में नहीं तौला जा सकता ; यह ऐसी एकजुटता थी, जिसे आंकने की कोई तराजू नहीं है।  

असल में तो यह एकजुटता 6 अगस्त को उसी पल से उमड़ने लगी थी, जब सेमीफाइनल जीतने की खबर आयी थी और लगभग पूरा देश झूम उठा उठा था। पूरा देश – कुश्ती का क तक न जानने वाले  नागरिक भी — उनकी इस उपलब्धि पर आल्हादित थे, इस कदर खुश थे कि बजरंग पूनिया द्वारा बोले गए शब्दों के कहें, तो यह तय नहीं कर पा रहे थे कि हँसे या रोयें!! ऐसा तब होता है, जब ख़ुशी की चरम अवस्था होती है – अभी परम का आना बाकी था। इस जीत को अपनी जीत मानकर देश ख़ुशी से झूम उठा था। वैसे यदि ऐसा लग भी रहा था, तो ठीक ही लग रहा था, क्योंकि ओलंपिक खेलों के मुकाबले से कहीं ज्यादा कठिन लड़ाई विनेश और उनकी साथी महिला पहलवानों ने जंतर-मंतर पर लड़ी थी ; लातें, थप्पड़, लाठियां खाईं थीं, उनसे अधिक तकलीफ और पीड़ा देने वाली गालियाँ खाई थीं। सिर्फ यौन दुराचारी भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह ही इन पर नहीं लपका था ; संस्कारी पार्टी की पूरी फ़ौज और उसमें शामिल औरतें भी सारी लाज-शर्म छोड़कर इन्हें भंभोड़ने के लिए झपट पड़ी थी, गरिया रही थीं। क्या-क्या नहीं कहा था इन असभ्यों ने ; विनेश को चुकी हुई खिलाड़ी बताया, विपक्ष की कठपुतली बताया, दूसरों से पैसा लेकर आन्दोलन करने वाला बताया, जैसे यौन दुराचार ही इनके लिए राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक हो, इस भाव से इनके आन्दोलन को ‘राष्ट्रीय गौरव’ और दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाला ‘राष्ट्रद्रोही’ बताया। इतना आहत किया कि प्रतिभाशाली पहलवान साक्षी मलिक को अपने जूते उतारकर इन्हें भेंट करने के लिए विवश कर दिया। बाकी जंतर-मंतर पर इनके साथ कब-कब, क्या-क्या हुआ, यह जो थोड़े से भी मनुष्य हैं, उन्हें अच्छी तरह से याद होगा, इसलिए दोहराने की आवश्यकता नहीं। जिन्हें याद नहीं है, उनके लिए दोहराने का कोई मतलब नहीं ; उन पर सिर्फ रहम किया जा सकता है। आन्दोलन निबट जाने के बाद भी यह निबटा नहीं था। अभी कुछ रोज पहले मई महीने में जब दुनिया भर के खिलाड़ियों की तरह भारत के खिलाड़ी भी तैयारी में जुटे थे, तब भी शाखा शृगाल और और उनकी आई टी सैल विनेश फोगाट को जलील करने, उनके खिलाफ अभद्र और अश्लील बातें करने में भिड़ी थी। क्षुब्ध होकर खुद विनेश फोगाट को कहना पडा था कि : “जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन बंद करने के बाद भी हम पहलवानों की आलोचना जारी है। ऐसा तब भी होता है, जब मैं अभी प्रतिस्पर्धा कर रही होती हूँ। मैं 53 किलोग्राम वर्ग का ट्रायल नहीं जीत पाई, क्योंकि मैं 50 किलोग्राम पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थी। मैंने 53 किलोग्राम वर्ग के ट्रायल में पूरी ताकत नहीं लगाई। इसके तुरंत बाद आईटी सेल मेरे पीछे पड़ गया।”

यही वजह थी कि सभी का ध्यान भारत से गए  117 अच्छे खिलाड़ियो से ज्यादा विनेश के मुकाबलों पर था। इसलिए नहीं था कि पहली बार कोई भारतीय लड़की ओलम्पिक मुकाबलों में इस ऊंचाई तक पहुंची थी, बल्कि इसलिए था कि इस देश के लिए विनेश एक प्रतीक  बन चुकी थीं। लोग उनकी जीत में अपनी और उस सबकी जीत देख रहे थे, जिनकी वे मूर्तमान आइकॉन के रूप में उभरी थीं। खुद को “आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम” समझने वाले सर्वशक्तिमानों के  अन्याय के खिलाफ संघर्ष की प्रतीक, यौन दुराचारियों को पालने-पोसने और किसी भी हद तक नीचे जाकर उनका बचाव करने की  मोदी की अगुआई वाली सरकार के कलंकित आचरण और निर्लज्ज और निर्मम पुलिस दमन की प्रतीक ; इसी के साथ वे इन सब की साजिशों और जलील किये जाने और अवरोध-दर-अवरोध खड़े किये जाने के बावजूद फिर से ओलम्पिक – लगातार तीसरे ओलम्पिक – में पहुँचने की सफल कोशिशों की प्रतीक के रूप में भी देश की उम्मीद बनकर सामने आई थीं।

यही वजह थी कि महज 100 ग्राम वजन ज्यादा होने के कारण उन्हें मुकाबले से बाहर किये जाने की खबर मिलते ही पूरा देश उतना ही दुखी था, जितनी कि वे खुद हुयी होंगी। ज्यादातर भारतीय विनेश को अयोग्य ठहराने वाले इस फैसले के पीछे उन लोगों की साजिश देख रहे थे, जिनके खिलाफ विनेश और भारतीय महिला खिलाड़िनें लड़ी थीं। इसकी सच्चाई और असलियत क्या थी, यह जल्दी ही पता लग जाएगा, मगर  पिछले 10 वर्षों के राज में मोदी और उनके कुनबे ने जिस तरह से जनता का भरोसा खोया है, अपनी साख गंवाई है, अपने आचरण से जैसी छवि बनाई है, उस पृष्ठभूमि में ऐसी प्रतिक्रिया अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती। विनेश की जीतों के बाद इस गिरोह की बिलबिलाहट इन आशंकाओं को हवा ही देती थी। सिर्फ आई टी सैल ही नहीं, इसके बड़े-बड़े लोग भी अपने ही देश की खिलाड़ी को बजाय बधाई देने के ताने-तिश्नों की बौछार लगाए हुए थे। भाजपा सांसद कंगना रानावत, भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण चौहान के यौन दुराचार के खिलाफ चले आन्दोलन में महिला खिलाड़ियों द्वारा लगाए गए “मोदी तेरी कब्र खुदेगी” नारों की याद दिला रही थीं। ऐसा बहुत कम होता है, जब दूसरों की मेहनत की ए बी सी  में से सिरीमान एक्स्ट्रा 2 ए बी अपने लिए एक्स्ट्रा घी निकाल कर न पीयें, मगर इस जीत पर वे सुट्ट ही रहे, उनकी तरफ से कोई बधाई सन्देश नहीं आया। और तो और, खेल मंत्री भी नहीं ट्विटियाये। ऐसा लग रहा था, जैसे विनेश ने सेमी फाइनल मुकाबले में क्यूबा की युवती को नहीं, है उन्हीं को  पटखनी दी है।  

बहरहाल 100 ग्राम हादसे के बाद देश भर में व्याप्त रोष और विक्षोभ के विस्फोट और उनमें निहित साजिशों की आशंकाओं की आंच खुद पर आती देख सरकार मुंह खोलने के लिए विवश हो गयी। सरकार के मंत्री संसद में बोले, मगर उनका बोलना, न बोलने से ज्यादा घिन पैदा करने वाला था। खेल मंत्री मनसुख मंडाविया ने 6 मिनट की सफाई में  कंगना रानावत की बकवास को ही आगे बढाते हुए आधा वक़्त उन पैसों को गिनाने में खर्च किया, जो बकौल उनके विनेश फोगाट की ट्रेनिंग वगैरा पर खर्च किये गए थे। एक के बाद एक मद वे ऐसे गिना रहे थे, जैसे वे सब एक अकेली इसी खिलाड़ी को दिए गए हों और इन मंत्रियों ने अपनी जमीन बेचकर दिए हों। देश में मचे बवाल को शांत करने के लिए बताया गया कि और किसी ने नहीं, स्वयं मोदी जी ने भारतीय ओलम्पिक संघ की पी टी उषा से इस मामले में ‘तुरंत’  कुछ करने को कहा है। यह तुरंत कितना तुरंत था, यह अब सामने आ चुका है। भारत में विनेश फ़ोगाट के वकील राहुल मेहरा ने इस दिखावे का पर्दाफ़ाश करते हुए बताया है कि कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट  – सी ए एस – में अपील करने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त वकील हरीश साल्वे ने पूरे दो दिन लगा दिए, 6 अगस्त की घटना के खिलाफ वे 8 अगस्त की देर शाम पहुंचे। अपील भी उन्होंने विनेश की तरफ से नहीं, भारतीय ओलम्पिक संघ की तरफ से की। अगर विनेश ने पहले से ही स्वेच्छा से कानूनी सहायता देने वाले पेरिस के प्रो बोनो वकीलों के माध्यम से अपील नहीं की होती, तो मामला सुनवाई में भी नहीं जाता। हम भी खड़े हैं राहों में, का दिखावा करने के लिए मोदी सरकार ने हरीश साल्वे के जरिये भारतीय ओलम्पिक संघ याचिकाकर्ता नहीं, एक हस्तक्षेपकारी के रूप में – इंटरेस्टेड पार्टी – के रूप में कोर्ट के सामने पहुंचा, अपील प्रो बोनो के वकीलों की ही ग्राह्य की गयी थी। समय चूक जाने की यह चूक किसी फोकटिये नौसिखिये वकील की लापरवाही नहीं कही जा सकती ; साल्वे खेलकूद के क़ानून कितने जानते हैं, ये तो वे जाने, मगर वे नौसिखिये नहीं हैं, फोकटिये तो बिलकुल नहीं हैं, सुनते हैं कि जम्बू द्वीप के सबसे महंगे वकील हैं। खबर तो यह भी है कि पेरिस में भी सारे फैसले भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष संजय सिंह ही ले रहे थे, जबकि ब्रजभूषण शरण सिंह के चौये होने की वजह से उनके चुनाव और उनके कुश्ती संघ को चुनाव के फ़ौरन बाद ही निलंबित किया जा चुका है। अगर यह खबर सच है, तो  वे किस हैसियत से पेरिस में थे और किस अधिकार से हुकुम चला रहे थे, यह भी किसी स्कैंडल से  कम नहीं है।

ओलम्पिक में भारत के लिए स्वर्णपदक जीत चुके अभिनव बिंद्रा इसी बात को और साफ़ करते हुए कहते हैं कि “भारत की जो खेल व्यवस्था है, वह खिलाड़ियों की तैयारी या जीत में मदद नहीं करती। जो खिलाड़ी जीतते हैं, वे उसकी वजह से नहीं, बल्कि उसके बावजूद जीतते हैं।” बहस और पड़ताल तो इस बात पर भी होनी चाहिए कि करीब डेढ़ अरब की आबादी वाले देश का ओलम्पिक सहित अंतर्राष्ट्रीय खेलों में इतना बुरा हाल क्यों होता है? कौन-कौन और ब्रजभूषण शरण सिंह चौहान खेल संस्थानों पर कब्जा जमाये बैठे हैं, वह कौन-सा बाजार है, जिसने अपनी कमाई के लिए एक खेल को तवज्जोह ही नहीं दी, बल्कि उसके अलावा बाकी सभी खेलों को बर्बाद कर दिया ।

पेरिस के 100 ग्राम काण्ड के बाद विनेश फोगाट को राष्ट्रीय धरोहर और उनके जीवन को एक महाकाव्य बताते हुए कॉलमिस्ट सोनिया यादव ने ठीक ही लिखा है कि “यह खेल के मंच पर राजनीतिक विजय है। पेरिस का स्टेडियम उस रणभूमि का रूपक है, जिसे विनेश फोगाट भारत में अधूरा छोड़ आई थीं। भारत की लड़ाई पेरिस में जीती जानी थी। इसलिए भले ही इसका मलाल रहेगा कि विनेश फोगाट को स्वर्ण पदक के मैच से पहले अयोग्य घोषित कर दिया गया, लेकिन यह उनकी विराट जिजीविषा और हिमालय-सी उपलब्धि को रत्ती भर कमतर नहीं करता।”

28 मई 2023 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए दमन के बाद 1 जून को विनेश ने अपने सोशल मीडिया पर मुक्तिबोध की कविता का एक अंश पोस्ट किया था : “हम इसलिए मरे कि जरूरत से ज्यादा नहीं, बहुत-बहुत कम हम बागी थे।” शायद यही उन्हें याद आया होगा और इसीलिये शुरू में सदमे में आयी विनेश फोगाट ने देश में मिले अभूतपूर्व समर्थन के बाद अखाड़े और बाकी जगहों पर अपनी लड़ाई जारी रखने का एलान कर दिया है।  

लेकिन यह लड़ाई सिर्फ उनकी नहीं है ; यह उस घिनौनी पुरुष सत्तात्मकता के खिलाफ है, जिसके खिलाफ इन सहित देश की महिलायें लड़ रही हैं, यह उस कुटिल वर्चस्वकारी तिकड़मी राजनीति के खिलाफ है, जो खेल संस्थानों पर कब्जा करके देश के खेलकूद को गर्त में धकेल रही है, यह उस बाजारवाद के खिलाफ है, जिसने अपने मुनाफे के हिसाब से मैदान सजाया हुआ है ; ठीक इसीलिए यह सिर्फ विनेश, साक्षी या बजरंग पूनिया की नहीं, सबकी लड़ाई है। इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से बलाली गाँव तक हुआ स्वागत इस लड़ाई में भागीदारी का ही एक रूप था।  

(लेखक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)