डॉक्टर उमैर मंज़र

बाज़ अफराद ऐसे होते हैं जो अपने कारनामों के सबब किसी शहर का चेहरा बन जाते हैं। लेकिन इस मंज़िल तक पहुँचने में एक उम्र बीत जाती है। ख़्वाजा मोहम्मद यूनुस (1935-2019) का शुमार लखनऊ के ऐसे ही लोगों में किया जाता है। उन्होंने अपनी अमली ज़िन्दगी का आग़ाज़ दीनी तालीमी कौन्सिल की लखनऊ शाख की मामूली मुलाज़मत से किया था मगर अपने जुनून और काम की धुन उन्हें आगे बढ़ाती रही, यहाँ तक कि दीनी तालीमी इदारों के क़याम का एक सिलसिला उन्होंने शुरू कर दिया। पहला तालीमी इदारा 1969 में ‘‘इरम माॅडल निस्वाँ स्कूल’’ के नाम से क़ायम किया। एक मोहतात अन्दाज़ के मुताबिक़ इस वक़्त ‘‘इरम एजुकेशनल सोसाइटी’’ के तहत पचास से ज़ाएद मुख़तलिफ तालीमी इदारे चल रहे हैं। इन तालीमी इदारों में इरम कम्पयूटर एजूकेशनल सेन्टर, ‘‘इरम गल्र्स डिग्री काॅलेज, इरम यूनानी काॅलेज, इरम एलोपैथिक हाॅस्पिटल भी शामिल हैं। ख्वाजा सै0 मो0 यूनुस की इन्हीं तालीमी खिदमात के सबब कोई उन्हें ‘‘अवध का सर सैय्यद’’ कहता है तो किसी ने उन्हें सर सैय्यद सानी का लक़ब दे रखा है। कोई ख्वाजा इल्म नवाज़, तो कहीं बाबाए तालीम के नाम से भी पुकारे जाते हैं।

ख्वाजा मोहम्मद युनुस एक बाग़ व बहार शख़्सियत के मालिक थे। अपनी गूनागूँ दिलचस्पीयों और सरर्गीमयों के सबब उनकी शख्सियत और एक तरफ उन्होंने तालीम को आम करने के लिए बेशुमार तालीमी इदारे क़ायम किये तो वहीं उन्होंने शेर व अदब की मशक़ बहम पहुँचाई। उन्हें अश्आर खूब याद थे और मौक़ा व महल के लिहाज़ से इस तरह पेश करते कि महफिल का लुत्फ दो बाला हो जाता। शायरों और अदीबों से उनका खूब राब्ता था। तालीम के साथ साथ तहज़ीबी और सकाफती सगर्मियाँ भी परवान चढ़ने लगीं। अख़बार निकाले का भी तजुर्बा किया लखनऊ की तहज़ीबी और सकाफती ज़िन्दगी के एक सरगर्म नुमाईन्दे के तौर पर लोग उनकी तरफ मुतवज्जेह होने लगे। यौमे जमहोरिया के मौक़े पर झाँकियाँ, लखनऊ के तमसीली मुशायरे, लाइब्रेरियों का क़याम उनके ऐसे मशग़ले थे जिसने कभी आराम का मौक़ा नहीं दिया। एक काम मुकम्मल होता तो दूसरे का मंसूबा शुरू कर देते इस तरह वह अपनी धुन और काम में रवाँ दवाँ रहते। ख्वाजा सै0 मो0 यूनुस ने अपनी मेहनत, लगन और शौक़ से बहुत कुछ हासिल किया उनके कारनामों का एक तवील सिलसिला है। उनकी शख्सियत का एक अहम हिस्सा उनकी आजिज़ी व इन्केसारी थी। मोहब्बत और दोस्ती का एक ऐसा सिलसिला उन्होंने क़ायम कर रखा था कि उनके हलक़ाए अहबाब की वसअत को देख कर यकीन करना मुशिकल होता था इसी सबब उनके यहाँ नामुम्किन लफ्ज़ ही नहीं था उन्होंने अपने अकेले दम पर जितने इदारे क़ायम कर दिये काबिल और ज़हीन लोगों की जमआत भी शायद ऐसा न कर सके।

ख्वाजा यूनुस कई मज़ामीन में एम0ए0 थे। उर्दू फारसी और अरबी के अलावा अरब कल्चर में भी वह पोस्ट ग्रेचुएट थे इसके अलावा तालीम व तदरीस से मुतालिक बहुत से कोर्सेस उन्होंने कर रखे थे। बी0टी0सी0, बी0एड0 और मुअल्लिम उर्दू भी थे। हिन्दी, कानून और तिब की तालीम भी उन्होंने अपनी मेहनत से हासिल की थी। ख्वाजा यूनुस ने इल्म व अदब का भी एक सरमाया अपने पीछे छोड़ा। मुखतलिफ मौज़ूआत पर 70 से ज़ाएद किताबें उनके क़लम से निकलीं। मेरी मुख्तसर रूदादे ज़िन्दगानी के नाम से अपनी खुद नविश्त भी लिखी जिसमें उन्होने अपनी ज़िन्दगी की तमाम सरगर्मीयों को जमा कर दिया है।
ख्वाजा सै0 मो0 यूनुस मोहब्बत और इन्सानियत के आदमी थे। शेर व अदब से उन्हें फितरी लगाव था जिसके सबब शायरों और अदीबों और तालीम के माहेरीन से तआल्लुक और दोस्ती हैतरअंगेज़ नहीं लेकिन सियासत व सहाफ़त, नौकर शाह, और दीगर उलूम व फुनून से तआल्लुक रखने वाले बेशुमार लोगों से उनके ज़ाती रब्त थे। मुख्तलिफ किस्म के लोगों को जोड़ने और उन्हें अपने तालीमी कारवाँ से आगाह करने का एहम ज़रिया यही सक़ाफ़ती प्रोग्राम थे जिनमें मुशायरा और ‘‘जश्ने आम ग़ालिब और बेसनी रोटी’’ का इन्तेज़ार रहता था। इन्दिरा नगर केे इरम गल्र्स डिग्री काॅलेज का वसी सर सब्ज़ लाॅन महमानों की आमद का मुन्तज़िर रहता था और वहाँ पहुँच कर तबीयत को अजब सरशारी मिलती थी।

ख्वाजा सै0मो0 यूनुस के यूँ तो बहुत से कारनामें हैं लेकिन ‘‘जश्ने आम ग़ालिब और बेसनी रोटी’’ का वह जिस तरह एहतिमाम करते थे अदीबों शायरों सियासतदानों का इस मौक़े पर जो इज्तेमा होता था अब इस नवाँ के महफिलों से लखनऊ खाली हो चुका है। इन्हीं तक़रीबात की बदौलत लखनऊ वाले आम की जुम्ला मालूमात रखते थे। इब्तेदा में तक़रीरें होती जिनमें आम की काश्त, उसकी नस्ल, बाग़बानी और आमों की लज़्ज़त और शीरीनी से मुतालिक़ बहुत सी तफसीलात सुन सुन कर सामने दस्तरखान पर सजे हुए आमों का अव्वल अव्वल महज़ दीदार कर लेते। इस तरह के मौक़ों पर लखनऊ वालों की तहज़ीबी शाईस्तगी और ज़राफत के नमूने भी सामने आते रहते थे। आमों ही की किसी तक़रीब में डा0 असमत मलीहाबादी आम की किसी नस्ल पर गुफ्तगू कर रहे थे गुफ्तगू के एख़तिताम पर उन्होंने बताया इस आम का नाम दुल्हन है करीब में मशहूर सहाफी मरहूम हफीज़ नौमानी बैठे हुए थे कहने लगे बहू को मेरे हवाले कर दीजिए और उन्होंने भी कमाले शाइस्तगी के साथ दुल्हन उन्हें पेश कर दी। महफिल कुछ देर के लिए कहकहा ज़ार बन गई। ख्वाजा साहब की तक़रीब में एक बार मुझे भी जाने का इत्तेफ़ाक़ हुआ। शोरा की नज़्में, कताअत और सियासतदानों का खि़ताब एक दिल आवेज़ सूरत बन जाती है। बाज़ शोरा इस सूरते हाल में इस तरह पेश कर देता है कि वह दावत और दावतनामा दोनों का काम करता है। रफअत शेदा सिद्दीक़ी लखनऊ के मुमताज़ और क़ादिल उल कलाम शायरों में हैं इन तक़रीबात का वह अहम हिस्सा रहते हैं। एक बहुत यादगार क़ता उन्होंने मंज़ूम दावत नामे की शक्ल में कहा था। इस मौक़े के लिए कहा था।
चचा ग़ालिब की रूह पुर सुखन भी
इरम में आपको महसूस होगी
गुज़ारिश है न यह मौक़ा गवायें
है जश्न आम और ग़ालिब इरम में
फिज़ा में बेसनी रोटी की खुशबू
कबाबों की महक का तेज़ जादू
मसर्रत होगी खाना साथ खायें
है जश्न आम और ग़ालिब इरम में

जनाब आरिफ़ निगरामी जो इस इदारे से वाबस्ता हैं उन्होंने बताया कि बेसनी रोटी पकाने के लिए बाराबंकी से ख्वातीन ख़ास तौर पर बुलाई जाती थीं। उन्हें बड़ी महारत हासिल थी। मुताद्दि तरह की खिचड़ी और उनके एहतिमाम में कई तरह की चटनियाँ और अचार दस्तरख़्वान की ज़ीनत होते थे। जिन लोगों ने इरम गल्र्स डिग्री काॅलेज का लाॅन देखा होगा और उसकी किसी तक़रीब में शामिल रहे होंगे उन्हें अन्दाज़ा होगा कि ख्वाजा साहब सहाफ़त का किस तरह एहतिमाम करते थे यहाँ तक कि तक़रीब यादगार बन जाती थी। एक तक़रीब का नक्शा जनाब हफीज़ नौमानी मरहूम ने अपने जाद व बयान क़लम से इस तरह खींचा है कि उसका पूरा नक्शा सामने आ जाता है।

उनके बक़ौलः-
हर साल की तरह गुज़िश्ता साल ख्वाजा साहब ने फिर दावत नामे भिजवाये और खबर छपवाई कि हस्बे साबिक़ आम, ग़ालिब, बेसनी रोटी और लवाज़मात आपका इन्तेज़ार करेंगे। यह तक़दीर का खेल है कि ख्वाजा साहब की तबीयत अचानक बिगड़ गई और उन्हें उनके फरज़न्द देहली ले गये। ख्वाजा साहब के हर दोस्त के हाथ दुआ के लिए उठ गये और जब वह शिफायाब हो कर आये तो आम रूख़सत हो रहे थे। ख्वाजा साहब ने कहा कि मैं दावत दे चुका हूँ इसलिए तक़रीब तो होगी और हर किसी के मशवरे के बावजूद वह नहीं माने और डिग्री काॅलेज की फील्ड में जैसा इन्तेज़ाम किया उसके बारे में सब हैरान थे। और मैंने जो 70 बरस से लखनऊ में देखा था उनमें कोई तक़रीब ऐसी नहीं देखी जैसी शाहाना तक़रीब यह थी मैं अपनी व्हील चैयर पर जब दाखिल हुआ तो हैरान था कि यह कोई अदबी तक़रीब है या शाहाना ताज पोशी का दरबार? डिग्री काॅलेज की पूरी फील्ड में हर तरफ से आने वाले हवा के रास्ते छोड़ कर इस तरह शानदार कुर्सीयाँ और सोफे बिछाये गये थे कि बैठने वाला हर महमान अपने को महमाने खुसूसी समझ रहा था। यह यकीन है कि ख्वाजा के फरज़न्दों ने अपने वालिद की तक़रीब में उनका जश्न सेहत में जोड़ दिया था और यह हक़ीक़त है कि सिर्फ़ में ही नहीं ज़यादा तर हज़रात अयादत और सेहत की मुबारकबाद देने के लिए ही आये थे, सब अंगुश्त बद निदा थे।

ख्वाजा यूनुस की ज़िन्दगी पर नज़र डालने के बाद यह यकीन करना मुश्किल होता है कि यह सारे काम एक शख़्स ने अंजाम दिये हैं। उनके बारे में बाज़ मालूमात डाक्टर अब्दुल हलीम के तवस्सुत से मिली है जिससे अन्दाज़ा होता है कि उनकी ज़िन्दगी में एक सबक है। और काम करने वालों के लिए एक जज़्बा। ख्वाजा सै0 मो0 यूनुस असलन मेलारायगंज ज़िला बाराबंकी के रहने वाले थे मगर उन्होंने मैदान अमल लखनऊ को बनाया।