तौक़ीर सिद्दीक़ी

उत्तर प्रदेश में चुनाव के बाद गठबंधन के सवाल पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा कहती हैं कि भाजपा को छोड़कर दूसरी सभी पार्टियों के साथ उनकी पार्टी गठबंधन के लिए तैयार है। इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है. इसके आगे वह भाजपा और सपा को एक ही बिसात पर खेलता हुआ भी बताती हैं, यहाँ विरोधाभास है. फिर वह कहती हैं कि वह किसी भी तरह की चर्चा के लिए तैयार थीं लेकिन चर्चा नहीं हुई.मतलब अकेले चुनाव लड़ना उनकी मजबूरी है, हालाँकि कई मौकों पर प्रियंका वाड्रा और उनकी पार्टी ने साफ़ तौर पर कहा कि कांग्रेस पार्टी यूपी में किसी का साथ नहीं लेगी। दुविधा में डूबी कांग्रेस

प्रियंका की बातें उलझन भरी हैं, कन्फ्यूज़न में लिपटी हुई. एक तरफ तो पूरे प्रदेश में पार्टी को अपने पैरों पर खड़े करना चाहती हैं फिर वह यह भी कहती हैं कि बातचीत के लिए सिर्फ भाजपा के दरवाज़े बंद हैं. भाई अभी तो पार्टी ठीक से शुरू भी नहीं हुई है, अभी तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं के शरीर में सिर्फ हरारत आयी है, थोड़ा जोश आया है और आपने एकबार फिर गठबंधन की बात शुरू कर दी. प्रियंका की इन बातों से कांग्रेसियों में ही कानाफूसी शुरू हो चुकी है, संकेतों में सवाल शुरू हो चुके हैं कि मैडम को यह क्या हुआ? मैडम इतना मॉडरेट क्यों बन रही हैं, यह यूपी की राजनीति है यहाँ इस तरह की बातें अप्रासंगिक मानी जाती हैं.

फिर वह कहती हैं कि अच्छा हुआ किसी से गठबंधन नहीं हुआ, मतलब खिसियानी बिल्ली वाली कहावत। वह मायावती की निष्क्रियता पर भी सवाल उठाती हैं, पर वह शायद यह नहीं जानतीं या अनजान बनने की कोशिश करती हैं कि यह मायावती का स्टाइल है. मायावती कभी पब्लिक के बीच नहीं जातीं। हाँ कुछ चुनावी रैलियां ज़रूर करती हैं मगर चुनाव आयोग ने उनपर पाबन्दी लगा रखी है. कुछ इसी तरह के सवाल प्रियंका अखिलेश यादव पर भी उठाती हैं. खैर प्रतिरोधी पार्टियां हैं, चुनाव में इस तरह के सवाल उठाये भी जाते हैं मगर प्रियंका गाँधी जिस तरह से सवाल उठा रही हैं वह अपने आप में खुद एक सवाल है.

यह बड़ी अच्छी बात है कि वह इस चुनाव में कुछ ऐसे मुद्दे लेकर आयी हैं जो अपने आप में ऐतिहासिक हैं, उनका यह कहना सही है कि विकास, बेरोज़गारी, महंगाई, महिलाओं की सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए न कि साम्प्रदायिकता और जातिवाद पर. लेकिन यह अपने आप में एक कडुवा सच है कि चुनाव इसी मुद्दे पर होते हैं, आपकी राजनीति में साम्प्रदायिकता नहीं है, बड़ी अच्छी बात है, होनी भी नहीं चाहिए मगर जातिवाद से आप भाग भी नहीं सकते क्योंकि यहाँ का सामाजिक ताना बाना ही कुछ ऐसा है. हालाँकि प्रियंका का यह कहना बिलकुल सही है कि इससे नुक्सान सिर्फ जनता का ही होता है.

वैसे हकीकत को स्वीकारना अच्छी बात होती है. प्रियंका वाड्रा ने इसे सीधे तौर पर नहीं तो घुमा फिराकर मान लिया है कि कांग्रेस पार्टी यूपी के चुनावी मैराथन में पिछड़ी हुई है, उनका लड़की हूँ लड़ सकती हूँ का नारा बहुत आकर्षक है मगर यूपी की राजनीति में फिट नहीं बैठता। यह नारा उत्तराखंड और गोवा में काफी कारगर हो सकता था. अंत में प्रियंका के लिए यही कहूंगा कि कन्फ्यूज़न छोड़िये, मरहूम जर्नलिस्ट कमाल खान के शब्दों में प्रियंका ने राह अच्छी मगर मुश्किल पकड़ी है. तो जब मुश्किल डगर पर चलना है तो कन्फ्यूज़न कैसा। कल क्या होगा उसका ज़िक्र अभी से क्यों।