बालेंदु द्विवेदी की “वाया फुर्सतगंज” में है मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स की गहन पड़ताल
गोरखपुर के एक छोटे से गांव ब्रह्मपुर में पैदा हुए बालेंदु द्विवेदी जी की फिक्शन राइटिंग में एक अलग पहचान है, साहित्यकार के रूप में स्थापित बालेन्दु द्विवेदी को इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा लेखक श्रीलाल शुक्ल से मिली। इसके अलावा वे साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद से भी खासे प्रभावित रहे है। उनके लिखे नए उपन्यास वाया फुर्सतगंज में गांव के जीवन की कटु सच्चाई और घिनावनी राजनीति का चित्रण है। इंस्टेंटखबर डॉट कॉम के साथ बालेन्दु जी ने अपने इस नए उपन्यास के बारे काफी विस्तार से बात की.
इंस्टेंटखबर: आपको पहली बार कब एहसास हुआ कि आप एक लेखक बनना चाहते हैं?
बालेंदु: लिखना तो हमेशा से होता रहा है .लेकिन फिक्शन राइटिंग का ख़याल बहुत बाद में आया. 2010 की बात होगी. इलाहाबाद में आफीसर्स हॉस्टल में रहता था.रात के करीब बारह बजे शार्ट शर्किट से बिल्डिंग में आग लग गई.चारो तरफ अफरा तफरी मच गई. किसी तरह लोग जान बचाकर कर निकले. खैर आग तो कुछ ही देर में बुझा दी गई. लेकिन उसक घटना के बाद घटने वाली छोटी-छोटी चीज़ों ने मुझे एक कहानी दे दी. मैंने इन घटनाओं को अपनी कल्पना के साथ जोड़कर एक कहानी का रूप दे दिया. बस तभी से यह सफर शुरू हो गया.
इंस्टेंटखबर: अपनी नई किताब ‘ वाया फुर्सतगंज’ के बारे में कुछ बताएं?
बालेंदु: दरअसल वाया फुरसतगंज एक गांव की छोटी सी घटना के बहाने पूरी मुख्यधारा की राजनीति की गहन पड़ताल करती है। फुरसतगंज एक ऐसा गांव का प्रतिनिधित्व करता है जिसके अधिकांश निवासी जीविकोपार्जन वाले पारंपरिक रोजगार को छोड़कर, बाक़ी सारे तरह के रोज़गार से न केवल वाकिफ हैं बल्कि इस तरह के कार्यों में बख़ूबी दखल भी रखते हैं। एक दिन फुरसतगंज में एक ऐसी घटना घटती है कि पल भर में ही यहां का सारा ताना-बाना छिन्न भिन्न होने लगता है और स्थानीय राजनीति व मुख्यधारा की राजनीति में चुम्मा- चुम्मी शुरू हो जाती है। असल में यहां के जिन्नधारी महात्मा हलकान मियाँ का इकलौता बेरोज़गार पुत्र परेशान अली रात के अंधेरे में पास के ही कुएं में गिर जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। सुबह पता चलता है कि उसके साथ उसकी इकलौती बकरी भी गिर कर मर गई
शुरुआती जांच में इसे दुर्घटना का मामला बताकर रिपोर्ट शासन को भेज दी जाती है। लेकिन परेशान अली अपनी मौत के बावज़ूद सत्ता के गले की फाँस बन जाता है। अचानक से सुन्न पड़े स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व,सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों सहित प्रशासन में विचित्र किस्म की हरक़त दिखाई देने लगती है। देखते-ही-देखते परेशान अली के बहुतेरे हमदर्द निकल आते हैं। कोई परेशान को मज़दूर बताने लगता है,कोई किसान,कोई अभिनेता तो कोई राजनीतिक कार्यकर्ता..!
झूंसी के राजघराने के अन्तिम अवशेष और अब वहां मसान घाट में धूनी रमा रहे बाबू जोखन सिंह को एक साथ कई शिकार करने का अवसर दिखाई देने लगता है। हड़िया इलाके के विधायक पाखंडी शर्मा सदन में ही अपने साथियों के साथ सभी के कुरते फाड़ने लगते हैं और देखते ही देखते पूरी राजनीति निर्वस्त्र होने लगती है।
माहौल गरमाने लगता है और कुछ समय के लिए परेशान अली की मौत की घटना नेपथ्य में चली जाती है और चौतरफ़ा उनकी लाश पर राजनीति की गरमागरम रोटियां सेंके जाने लगती हैं। जीते जी जिस परेशान अली की कोई जाति तक नहीं पूछता था; आज सभी के द्वारा उसे अपने हितों से गहरे सम्बद्ध बताने की होड़ मच जाती है। राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में अदना इंसान कैसे मौत के बाद भी सत्ता के मनोरंजन का केंद बना रहता है, परेशान अली इसका सबसे बड़ा उदाहरण साबित होता है।
इंस्टेंटखबर: वाया फुरसतगंज का आइडिया कहा से आया?
बालेंदु: एक दिन मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी कि एक गांव में कुएं से एक बकरे को निकालने के चक्कर में पिता और पुत्र दोनों अपनी जान गंवा बैठे।बस यहीं मुझे अपनी नई कहानी का प्रस्थान बिंदु मिल गया।मैंने इस कहानी को बुनने और इसके कथानक को तनिक विस्तार देने का काम शुरू किया।पहले से एकत्रित कच्चे माल को भी इसके साथ लगाना शुरू किया।धीरे-धीरे वाया फुरसतगंज की कहानी शक्ल लेने लगी। मई,2019 में जब इसका पहला ड्राफ्ट बनकर तैयार हुआ तो उस समय मैंने अपने एक सीनियर दोस्त को इसे दिखाया।उन्होंने इसमें कुछ छोटे छोटे करेक्शन सुझाए।फिर इसके हिसाब से कहानी के अंतिम परिच्छेद में मैंने कुछ परिवर्तन भी किया।और अब वाया फुरसतगंज आप सभी के सामने है।
इंस्टेंटखबर: आपको किताब लिखने में कितना समय लगता है?
बालेंदु: उपन्यास लेखन को समय की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता.लिखने के पहले महीनों तक कहानी को भीतर ही भीतर जीना पड़ता है,फिर पात्रों की रचना करते समय परकाया-प्रवेश करना होता है.और यह काम एक ही दिन में कई-कई बार करना पड़ता है.आप हर वक़्त और हमेशा नहीं लिख सकते.ऐसा भी होता है कि आपन लिखने बैठे और कुछ लिख ही न पाएं…!कई बार तो कहानी आगे भागती जाती है लेकिन उसे कागज़ पर उतारने का समय ही नहीं होता.और कई बार लिखने बैठिये तो विचार ही अवरुद्ध रहते हैं.कुल मिलाकर उपन्यास लिखना असल में लोहे के चने चबाने जैसा काम है.हर बार यही लगता है कि अमां यार..!कहाँ से यह पंगा ले लिया..!!सबसे बड़ी बात कि जड़ मान्यताओं पर प्रहार करते समय भीतर ही भीतर आत्मसंघर्ष अलग से चलता रहता है.तब विचार और संस्कार की लड़ाई अपने चरम पर होती है.फिलहाल मेरे लिए तो उपन्यास लिखना एक लम्बे आत्मसंघर्ष से गुज़रना है.और यह बहुत त्रासद समय होता है.सालों तक मंथन चलता रहता है.इस समय की गड़ना कैसे करेंगे.इसलिए भाई..!मेरे लिए तो उपन्यास लेखन को समय में बांधना बहुत कठिन है.
इंस्टेंटखबर: जब आप लिख रहे होते हैं तो आपका कार्यसूची कैसा होता है?
बालेंदु: जब मौका मिलता है तब लिखता हूँ.जब विचार आते हैं तब लिखता हूँ.कई बार सामने कोई दृश्य दिखा,कोई पात्र दिखा,कोई घटना हुई.उसे मोबाइल में नोट कर लिया.फिर उसका विस्तार करके यथास्थान उपन्यास में जोड़ दिया.छुट्टी के दिन और रात में सोने के पहले कोशिश करता हूँ कि कुछ न कुछ ज़रूर लिखूं.उपन्यास लेखन में निरंतरता बहुत ज़रूरी है.लिखें या न लिखें,लेकिन कहानी कहाँ अटकी हुई है और क्यों अटकी हुई है-इस पर गौर करते रहने के लिए भी रोज बैठना आवश्यक है.
इंस्टेंटखबर: आप क्या कहेंगे कि आपका दिलचस्प लेखन क्या है?
बालेंदु: यह सवाल जितना आसान दीखता है उतना है नहीं।अव्वल तो यह निष्कर्ष ही गलत है कि विधाओं और शैली का चुनाव हम करते हैं।यदि ऐसा होता तो हर रचनाकार जब चाहता तो हर विधा में हाथ आजमा लेता।जिस शैली में चाहता लिख लेता।जब चाहता कहानी लिखता,जब चाहता उपन्यास लिखता और जब चाहता तो कविता और निबंध लिखने बैठ जाता..!लेकिन ऐसा होता नहीं है।क्यों विधा हमें स्वयं चुनती है।इसे ऐसे कह सकते हैं कि हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में ढेर सारी प्रवित्तियों और संस्कारों का हाथ होता है।ये मिलकर हमारे जिस व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं;कालांतर में वे वृत्तियां केवल उन्हीं विषयों को ग्रहण करती हैं जो उसके अनुकूल होती हैं।शैली भी बहुत कुछ वृत्ति से निर्धारित होती चलती है।शैली हमारे व्यक्तित्व का अनिवार्य अंग है;जिसे हम चाहकर भी अपने से पृथक नहीं कर सकते।अगर पृथक करने चलेंगे तो बेनकाब हो जाएंगे।क्यों तब हमारा नकाब उतर जाएगा।इसलिए जिसे हम विधाओं का चयन या शैली का अंगीकार किया जाना कहते हैं;दरअसल वह स्वतःस्फूर्त है और उसमें कोई सायास बदलाव संभव नहीं है। मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूं क्योंकि मैं उपन्यास ही लिख सकता था।समय के दबावों ने मुझे ऐसा ही बनाया।इसी प्रकार मैं व्यंग्यात्मक शैली में ही लिख सकता था। क्योंकि व्यंग्य मेरी रगों का हिस्सा है,मेरे संस्कारों का हिस्सा है।मैं और व्यंग्य लगभग एक दूसरे के पर्याय हैं।
इंस्टेंटखबर: आपने अपनी पहली किताब कब लिखी थी और आप कितने साल के थे?
बालेंदु: मदारीपुर जंक्शन को मैंने वर्ष 2011 में लिखना शुरू किया था।उस समय मेरी उम्र पैंतीस छतीस साल की थी.तब यह तय नहीं था कि क्या निकालकर आयेगा;या कुछ निकलकर आ पाएगा भी या नहीं।फिर ऐसा भी हुआ कि लगभग डेढ़ साल इस पर कुछ नहीं लिखा।वर्ष 2014 के आरंभ से 2015 के मध्य तक इसको लिखकर पूरा किया।लेकिन सवाल बड़ा था कि यह छपे कैसे?क्योंकि पूरा होने के बाद एक साल तक मेरे पास कोई प्रकाशक ही नहीं था।इसलिए इस अवधि में मैं न केवल प्रकाशक तलाशता रहा बल्कि मदारीपुर जंक्शन का पूर्व लिखा तराशता भी रहा।तब भी छपने की इतनी जल्दी नहीं थी।क्योंकि यह आत्मविश्वास था कि कुछ बेहतर रच गया है और इसे छपने के पूर्व जितना तराशा जाय उतना ही अच्छा होगा।क्योंकि एक बार जब पुस्तक पाठकों के हाथ में पहुंच जाती है;तब आप कुछ नहीं कर सकते।तब आप केवल प्रतिक्रियाओं के मूक साक्षी भर बनकर रह जाते हैं।
इंस्टेंटखबर: आपने अपनी पुस्तकें बनाते समय सबसे आश्चर्यजनक चीज़ों में से एक क्या सीखा?
बालेंदु: पुस्तक लिखने में बहुत सारी कलाओं को एक साथ साधना पड़ता है.नैरेशन,किस्स्साग़ोई,भाषा, कहने का अंदाज़,एडिटिंग,प्रूफ रीडिंग आदि आदि.मेरे लिए सभी किसी आश्चर्य से काम नहीं रहीं.लेकिन अब ये सभी जीवन का हिस्सा हैं.
इंस्टेंटखबर:आज के समय में भारत में हिंदी साहित्य की स्थिति पर आपके क्या विचार हैं ?
बालेंदु: देखिए..!आजकल साहित्य में सर्वश्रेष्ठता की लड़ाई चल रही है।हर कोई सर्वश्रेष्ठ बनना चाहता है।उसे इसी जीवन में बल्कि साल-दो साल में ही अमर कथाकार बन जाना है;चाहें इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े।सोशल मीडिया ने इसके लिए सबसे माकूल मंच प्रदान किया है।यहां सबने सबसे अपने-अपने गैंग बना रखे हैं।यह साहित्य का गैंगवार काल चल रहा है।कोई नया लेखक मार्केट में आया नहीं कि हमले शुरू..!यहां एक की श्रेष्ठता दूसरे को कमतर बताने और उसे नीचा दिखाने पर टिकी हुई है।पोसुआ समीक्षकों का एक अलंबरदार ऐसे लेखकों के समर्थन में मुंह में पिपिहरी दबाए खड़ा है।कुछ छपा नहीं कि सम्मान में धुन चालू..!दरबारी कविता तो सुनी थी;अब दरबारी समीक्षा का दौर है।लेखक को शीघ्र ही अमरता हासिल कर लेनी है-जीते जी।वेदांत में जिसे ‘सदेह मोक्ष’ कहा गया है कुछ वैसी ही स्थिति।
ऐसा नहीं है कि साहित्य में गुटबंदी या खेमेबंदी पहली बार हो रही है।लेकिन इसके पहले जो गुट बनते थे उनकी एक वैचारिक आधारभूमि हुआ करती थी।जो आक्रमण होते थे उसमें भी एक मर्यादा हुआ करती थी।निराला भी इस आक्रमण के शिकार हुए और उनकी तरह और भी बहुतेरे..!लेकिन भाषा का स्खलन कभी ऐसा नहीं हुआ;जैसा कि आज हो रहा है।छद्म साहित्यकारों की एक लंबी फौज खड़ी हो गई है जिसने साहित्य के असल स्वरूप को वैसे ही आच्छादित कर लिया है जैसे बादल,सूर्य को ढंक लेता है।ऐसे में श्रेष्ठ रचना की बात कौन करे और कौन सुने..!सबकी अपनी-अपनी डफली है और अपना-अपना राग है।इतना जरूर कहना चाहूंगा कि किसी भी रचना की श्रेष्ठता आने वाला समय तय करता है।और इसके लिए हर लेखक के पास अपना एक सुरुचिसंपन्न पाठक वर्ग होना चाहिए।सभी को यह सोचना चाहिए कि वह साहित्य का सेवक है।इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।
इंस्टेंटखबर: क्या सरकारी संस्थान हिन्दी साहित्य को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त पहल कर रहे हैं?
बालेंदु:सरकारी संस्थान ही ऐसे संस्थान हैं जो हिंदी साहित्य को बढ़ावा देने में कुछ ठोस पहल कर पा रहे हैं.चाहें किताबों के प्रकाशन का विषय हो ,या उनके अनुवाद का अथवा श्रेष्ठ रचनाओं को पुरस्कृत करने का..!इस लिहाज़ से सरकारी संस्थानों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है.
इंस्टेंटखबर:आज के युवा पाठकों के लिए एक शब्द?
बालेंदु:अच्छा पढ़ें और अच्छे का प्रसार करें.