दरिद्रता कुचक्र और अर्थव्यवस्था
दरिद्रता से आशय उस सामाजिक क्रिया से होता है, जिसमें समाज का एक भाग अपने जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति में समाज का भाग न्यूनतम जीवन स्तर से वंचित रह जाता है तथा केवल निर्वाह स्तर पर ही गुजारा करता है तो यह कहा जाता है कि समाज में व्यापक दरिद्रता मौजूद है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि वह व्यक्ति दरिद्र है जो दरिद्रता रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहा है। दरिद्रता रेखा की संकल्पना सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन के प्रथम निदेशक लाॅर्ड बाॅयड ओर ने सन् 1945 में की थी। उन्होंने बताय,ा यह रेखा बताती है कि जिन व्यक्तियों को 2300 कैलोरी का भोजन नहीं मिल पाता है उनको दरिद्रता की रेखा के नीचे माना जाना चाहिए।
दरिद्रता शब्द का सभी प्रयोग करते हैं किन्तु सही अर्थ दो रूपों निरपेक्ष दरिद्रता और सापेक्ष दरिद्रता में व्यक्त किया जा सकता है। किसी व्यक्ति की निरपेक्ष दरिद्रता का आशय यह है कि उसकी आय या उपभोग इतना कम है कि वह न्यूनतम भरण-पोषण स्तर से नीचे स्तर पर जीवन यापन कर रहा है। अन्य शब्दों में, मानव की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे रोटी, वस्त्र मकान, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवा आदि की पूर्ति का भली-भाँति न हो पाना है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि दरिद्रता का निरपेक्ष अर्थ उस न्यूनतम आय से है जिसकी एक परिवार के लिए आधारभूत न्यूनतम आवरूयकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक बढ़ती है तथा जिसे वह परिवार जुटा पाने में असमर्थ होता है।
सापेक्ष दरिद्रता से आशय आय की विषमताओं से है। जब दो देशों के प्रति व्यक्ति आय की तुलना करते हैं तो उसमें भारी अन्तर पाया जाता है, इसी अन्तर के आधार पर हम कह सकते हैं कि एक देश दूसरे देश से गरीब है। यह गरीबी सापेक्षिक दरिद्रता होती हैं, किन्तु भारत में दरिद्रता के निरपेक्ष विचार को ही अपनाया गया है।
लेस्टर आर.ब्राउन ने लिखा है, ‘‘दरिद्रता निराशा है, ऐसे पिता की जो दरिद्र देश में उत्पन्न्ा हुआ है, जिसे 7 व्यक्तियों के परिवार का पालन करना है पर जो बेरोजगारी की बढ़ती भीड़ में शामिल होता है और जिसके सामने बेरोजगारी की क्षतिपूर्ति की कोई सम्भावना नहीं है। दरिद्रता लालसा है ऐसे किशोर की जो गाँव के विद्यालय के बाहर तो खेलता है पर उस विद्यालय में प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि उसके माता-पिता के पास पाठ्य-पुस्तकें क्रय करने के लिए धन नहीं हैं। दरिद्रता उन माता-पिता का शोक है जो कि बीमारी में मरते अपना्रे को देख सकते हैं पर इलाज नहीं करा सकते हंै।’’ आज भारत में निरक्षर, भूखे,-नंगे, कुपोषित, निर्धनताग्रस्त, दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते हुए करोड़ों भारतवासियों की यही स्थिति है।
वस्तुतः दरिद्रता समस्त अपराधों की जननी है। यह मनुष्य को न केवल निराशा के गर्त में डुबो देती है वरन् उसमें घिनौनी हीनता को भी जन्म देती है। यह दुर्भाग्य की बात है कि जहाँ पश्चिम के अनेक राष्ट्र असीम भौतिक सुखों को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हैं वहीं आज दुनियां की 1.3 अरब निधन जनसंख्याा का सर्वाधिक 36 प्रतिशत भाग भारत में है और दुनियां का हर तीसरा गरीब व्यक्ति भारतीय है।
भारतीय योजना आयोग की रिपोर्ट-2011-12 के अनुसार, दरिद्रता की रेखा के नीचे की जनसंख्या 26.93 करोड़ है जो कि देश की आबादी का लगभग 21.9 प्रतिशत है। इन निर्धन भारतवासियों के पास न खाने के लिए पर्याप्त भोजन है, न पहनने के लिए वस्त्र और न रहने के लिए उचित आवास व्यवस्था है। 17 प्रतिशत माताओं की मृत्यु बच्चे के जन्म के समस्या ही हो जाती है। नवजात बच्चों की मृत्यु दर सबसे अधिक है। 2012 में यहाँ 14 लाख ऐसे बच्चों की मृत्यु हुई थी जिनकी उम्र 5 वर्ष से कम थी। यही कारण है कि आज दरिद्रता भारत की प्रमुखतम एवं ज्वलंत सामाजिक समस्या है।
रोटी, कपड़ा और मकान जनता की आधारभूत आवश्यकता है। इन तीनों में भोजन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। भोजन के बिना मनुष्य का जीवित रहना सम्भव नहीं है। अतः रोटी और रोटी देना प्रत्येक सरकार का पुनीत कत्र्तव्य है। इनकी पूर्ति किए बिना किसी भी व्यक्ति अथवा सरकार का बना रहना असम्भव है। दूसरे यदि भोजन गुणात्मक दृष्टि से हीन है तो जनता का स्वास्थ्य गिर जाता है। जिससे उसकी कार्य क्षमता घट जाती है। तीसरे खाद्यानों का आभाव होने से उनका आयात करना पड़ता है जिससे विदेशी विनमय का अभाव हो जाता है और देश का विकास अवरूद्ध हो जाता है।
आज वक्त आ गया है कि अब हमें समाज में धन सम्बंधी विषय से हटकर दरिद्रता के अध्ययन करने की आवश्यकता है अन्यथा भयानक दरिद्रता की चिंगारी अन्य भागों की सम्पन्न्ाता व विकास के विनाश का कारण बन सकती है। विद्वानों के अनुसार, राष्ट्रों की दरिद्रता का अध्ययन राष्ट्रों के धन के अध्ययन से भी अधिक महत्वपूर्ण है। मोटे तौर पर भारत की चैथायी जनसंख्या वर्तमान में प्रतिदिन 1 डालर या 62 रूपये से भी कम पर जीवन-निर्वाह करती है। यह एक अपरिष्कृत माप है। लेकिन यह दर्शाता है कि प्रतिदिन की भूख, दुःख एवं बीमारी, जिसे किसी भी मानव मात्र को नहीं झेलनी चाहिए।
दरिद्रता का प्रमुख कारण व्यक्तियों पर उत्पादक सम्पत्तियों का अभाव है या फिर जिसके पास कोई हुनर या दक्षता नहीं है। सामान्यतः दरिद्रियों के पास सम्पत्ति एवं आय की कमी होती है। गाँवों में धनी की प्रतिष्ठा उपलब्ध भूमि से होती है। यदि ग्रामीण क्षेत्र में किसी के पास भूमि नहीं है तो वह व्यक्ति दरिद्र माना जाता है।
भारत में दरिद्रता का मुख्य कारण कृषि की भूमि का न होना है। यदि दरिद्र के पास भूमि होती ही है तो वह कम मात्रा में होने के कारण अनुत्पादक होती है तथा भूमि में सुधार कर पाना इसलिए कठिन होता है कि उसके पास सुधार के लिए धन का अभाव तथा उसे साख भी प्राप्त नहीं हो पाती। निर्धनों के पास अधिकतर अपनी भूमि नहीं होती। उन्हें वह भूमि काश्तकारी या अर्द्ध बटाई माध्यम से मिली होती है। इसकी बजह से उन्हें आधी या इससे कम फसल ही प्राप्त हो पाती है। कभी-कभी निर्धनों के पास वह जमीन होती है जो कि समाज की होती है। किन्तु जनसंख्या में वृद्धि के कारण यह व्यवस्था भी समाप्त हो रही है। एक बहुत बड़ा व्यक्तियों का समूह ऐसा भी है जिसके पास भूमि का न तो स्वामित्व है और न ही आर्द्ध बटाई पर प्राप्त करता है, किन्तु वह मजदूरी पर आश्रित रहता है। कृषि से बाहर निर्धनों को कुटीर उद्योगों, सेवा तथा वाणिज्य में काम मिलता भी है तो वह कार्य या तो मौसमी स्वभाव का होता है या आंशिक स्वभाव का। इन कार्यों में कम पूँजी लगाने के कारण इनकी उत्पादकता भी कम होती है तथा इनसे कारीगरों की आय भी कम होती है।
आज भ्रष्टाचार देश के व्यक्तियों के खून में बसता जा रहा है। प्रशासनिक व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। देश को संचालित करने वाले राजनेता भी इससे मुक्त नहीं हैं परिणाम यह है कि विकास योजनायंे ठीक प्रकार से क्रियान्वित नहीं हो पा रहीं हैं। जो धन दरिद्रियों के उन्मूलन में लगना चाहिए वह धन दलालो की जेबें गर्म कर रहा है। परिणामस्वरूप दरिद्रियों और अमीरों के बीच खाई चैड़ी होती जा रही है। प्रशासन का प्रत्येक व्यक्ति अपने काम को ईमानदारी से नहीं करना करता है। जब तक पैसे की भेंट न चढ़ी दी जाए तब तक वह कार्यों की फाइल बंद रखता है। इससे आम नागरिक खासकर दरिद्र जनता पिस रही है। देश में कार्य करने की संस्कृति एक दम मिटती जा रही है। इस प्रकार की स्थितियों में देश की दरिद्रता हटाने की कल्पना मात्र कल्पना ही बनी रहेगी। देश की उच्च राजनैतिक पार्टियाँ कोई अच्छे, ठोस विचार या नीति नहीं रखतीं। उनका उद्देश्य जनता को गुमराह करके सत्ता पर कब्जा होना होता है तथा सत्ता में आने के पश्चात् दरिद्र जनता का ख्याल मस्तिष्क से निकाल देते हैं तथा स्वयं का घर भरने में लग जाते हैं तथा जनता का पैसा विदेशी बैंकों में स्वयं के नाम से जमा कर देते हैं इसके अतिरिक्त जनता को आपस में भिड़ाया जाता है तथा राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जाती हैं। परिणाम ढ़ाक के तीन पात अर्थात् जनता की दरिद्रता का उन्मूलन नहीं हो पाता।
एक जमाना था जब राजनेता का उद्देश्य जनता की सेवा करना तथा जनता की सेवा में अपने को तन-मन से समर्पित करना होता था अब आज का नेता चाहे किसी भी दल का क्यों न हो वह चमाचम वस्त्र, विदेशी गाड़ी में चलना, हवाई जहाजों में सफर करना, आलीशान बंगलों में रहना एवं देश के विभिन्न्ा कोनों में अपने मकान, होटल, फार्म हाउस रखना तथा विदेशों में भी बैंक खाते खोल कर करोड़ों डालर रखना तथा विदेशी शराब का सेवन, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ करना जिसे यहाँ बताया जाना लेखनी के विरूद्ध होगा। ऐसे राजनेताओं द्वारा जब इतनी बड़ी जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा ऐयाशी में लुटाया जाएगा तो देश की जनता तो दरिद्र होगी ही।
देश में बढ़ता हुआ जातिवाद, परिवारवाद, संयुक्त परिवार प्रणाली तथा उत्तराधिकार नियम भी दरिद्रता कायम करने में अपना अंशदान कर रहे हैं। जातिप्रथा में किसी जाति विशेष को ही लाभ मिल पाता है वही अपना विकास कर पाती है, किन्तु अन्य जातियाँ पिछड़ जाती हैं इससे उनकी दरिद्रता बनी रहती है। संयुक्त परिवार प्रथा में काम करने वाले कम व्यक्ति होते हैं तथा आश्रित व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है। इससे प्रति व्यकित आय कम होती है तथा निर्धनता की स्थिति पैदा हो जाती है। संयुक्त परिवार की वजह से कुछ लोग तो काफी आलसी हो जाते हैं तथा दरिद्रता को दावत देते है। अशिक्षा, अज्ञानता, रूढि़वादिता, अंधविश्वास के कारण अधिकाँश भारतीय जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक संस्कारों पर अनुत्पादक व्यय करते हैं। दरिद्र व्यक्ति को भी सामाजिक परम्पराओं का निर्वाह ऋण लेकर करना पड़ता है इससे वह कर्जदार हो जाता है तथा दरिद्रता के मकड़जाल में फंस जाता है। इसका असर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पड़़ता रहता है। जनसंख्या का एक बहुत बड़े हिस्से का शिक्षा स्तर काफी कम है। जिससे वह अच्छी नौकरी पाने में असमर्थ रहता है। अकुशलता होने के कारण उन्हें बहुत छोटा-सा काम करना पड़ता है। जिसके कारण उनकी अल्प आय रहती है एवं वे दरिद्र बने रहते हैं। स्त्रियों की जल्दी शादी व अधिक बच्चे होने के कारण स्त्री तथा बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं एवं वे अनेकों प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जाते है। इससे भी वह मुख्य धारा में नहीं आ पाते और दरिद्रता उन पर मड़राती रहती है।
भारत सरकार की आर्थिक नीतियाँ दीर्घकालीन तथा अस्पष्ट रही हैं। गत अनेक दशकों से ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया जा रहा है, किन्तु गरीबी में कोई बहुत अधिक कमी नहीं आयी है। हमारे देश में आर्थिक नीतियाँ सत्ता में आया राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक लाभ उठाने के लिए तैयार करता है। परिणाम यह होता है कि इन नीतियों का लाभ काफी बड़े जन समूह को नहीं मिल पाता। सत्ता में बैठी हुई पार्टी को चाहिए कि वह अपनी आर्थिक नीतियों को लगातार परिवर्तित करती रहें जिससे कि अधिकाधिक लोगों को लाभ प्राप्त हो सके।
यद्यपि योजनाकाल में आद्योगिक विकास की तरफ ध्यान दिया गया किन्तु आज भी देश में औद्योगिक विकास की दर काफी नीचे है। औद्योगिक क्षेत्र में उपभोग एवं उत्पादक उद्योंगो में असंतुलन के साथ क्षेत्रीय विषमता भी विद्यमान है। उत्पादन का पैमान भी छोटा होने की बजह से श्रम विभाजन संभव नहीं है एवं पूंजी की कमी के कारण भी उद्योगों का आधुनिकीकरण तथा विकास संभव नहीं है। इस कारण भी दरिद्रता की समस्या पूरी तरह से यथावत बनी है।
भारत में ‘दरिद्रता’ का कारण भी ‘दरिद्रता’ है अर्थात् ‘दरिद्रता’ दरिद्रता का कारण तथा परिणाम दोनों है। एक व्यक्ति दरिद्र है इसलिए निश्चित रूप से उसकी आय, उपभोग स्तर, कार्यक्षमता एवं बचत कम होती है। अतः वह दरिद्र ही बना रहता है। भारतीय अर्थव्यवस्था दरिद्रता के कुचक्र में फंसी हुई है इसलिए यहाँ दरिद्रता विद्यमान है। दरिद्रता के कुचक्र को तोड़कर ही देश से दरिद्रता को दूर किया जा सकता है।
हमारे लिए यह प्रश्न विचारण्ीय है कि पर्याप्त प्राकृतिक सम्पदा सम्पन्न्ा राष्ट्र होते हुए भी भारत एक निर्धन राष्ट्र है और भारतवासी गरीबी एवं बेरोजगारी में जीवन-यापन कर रहे हैं। भारत में सम्पन्न्ाता के साधन तो हैं किन्तु सम्पन्न्ाता के इन साधनों का उचित विदोहन न हो पाने के कारण भारत के निवासी निर्धनता में जीवन यापन कर रहे हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में एक प्रचलित उक्ति है कि भारत एक सम्पन्न्ा देश है जिसमें निर्धन लोग रहते हैं। इस उक्ति का प्रथम भाग भारतीय अर्थव्यवस्था की सम्पन्न्ाता का बोध कराता है जबकि उक्ति का दूसरा भाग अर्थव्यवस्था के निम्न आय स्तर एवं अल्प विकास को बताता है।
भारत में लगभग 36.7 करोड जनसंख्या की दरिद्रता समस्या नहीं सुलझाई गई तो एक बहुत बड़ा विस्फोट देश की अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख सकता है। इस विस्फोट का सबसे बड़ा निशाना अमीर व्यक्ति ही होंगें। जिन्होंने वक्त रहते गरीबों का खून चूसा और करोड़ों से नहाने लग तथा विस्फोट के के दौरान दरिद्रता से तंग आकर व्यक्ति हथियार उठाकर आतंकी तथा खूनखराबी करके अमीर व्यक्तियों का जीना दुष्वार करके रख सकते हैं अतः इस खतरनाक स्थिित से प्रबंध करने की अत्यन्त आवश्यकता है।
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