चापेकर बंधुओं का देश के लिए बलिदान
दीवान सुशील पुरी
आजकल जिस तरह कोरोना बीमारी पूरे विश्व में फैली हुई है , उसी तरह 1897 में पूना में भयंकर प्लेग फैल गया था। पूरा पूना भयंकर बिमारी से पीड़ित था (ब्रिटिश गवर्नमेंट का जमाना था )। प्लेग की रोकथाम के लिए चार्ल्स रैंड की नियुक्ति हुई थी , वह बड़ा ही क्रूर और शख्त था। पूना के लोग उसके नाम से ही कांपते थे। आए दिन चार्ल्स रैंड और उसके सहायक लेफ्टिनेंट आयर्स्ट दोनों अंग्रेज अधिकारी गोरे सैनिकों से नाकाबंदी करवाकर उनके भोजनालयों और पूजा घरों में घुस जाते थे और उनको मारते -पीटते और अपमानित करते थे। घर का सामान बाहर फेंक देते थे। यहाँ तक कि बहु-बेटियों और महिलाओं के साथ गंदा व्यवहार भी करते थे। इस जुल्म का विरोध बड़े-बड़े क्रांतिकारियों ने किया था लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ।
उधर तीनों भाई दामोदर हरि चापेकर , बालकृष्ण हरि चापेकर , और वासुदेव हरि चापेकर ने देखा कि चार्ल्स रैंड और उसका सहायक लेफ्टिनेंट आयर्स्ट एवं गोरे सैनिक बहु-बेटियों से बड़ा गंदा व्यवहार कर रहे हैं। उनसे देखा नहीं गया , तीनों भाइयों ने चार्ल्स रैंड को मारने का संकल्प लिया। तीनों भाई महाराष्ट्र के पुणे के पास चिंचवड़ गांव में रहते थे। इनके पिताजी हरिभाऊ चापेकर एक प्रसिद्द कीर्तनकार थे, और माँ लक्ष्मीबाई क्रांतिकारी महिला थी जो भारत को स्वतंत्र देखना चाहती थी। हरिभाऊ चापेकर ने लोकमान्य गंगाधर तिलक जी का ओजस्वी भाषण सुना था , उसका हरिभाऊ चापेकर पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ा और देश कि स्वतन्त्रता के लिए सबकुछ न्योछावर करने का संकल्प लिया। अच्छे कीर्तनकार होने के नाते उसके माध्यम से लोगों को प्रेरणा देते थे। इसका प्रभाव इनके तीनों बच्चों पर भी पड़ा और इन तीनों भाइयों ने देश को गुलामी की बेड़ियों से छुटकारा दिलवाने का संकल्प लिया।
बचपन से ही दामोदर हरि चापेकर और बालकृष्ण हरि चापेकर की सेना में जाने की इच्छा थी कि सेना में भर्ती होकर भारतीय सेना को उकसायेंगे और विद्रोह पैदा करेंगे , लेकिन सेना में प्रवेश दोनों भाइयों को नहीं मिला। ब्रिटिश सरकार को पता चल गया था कि यह लोग बाल गंगाधर तिलक और महर्षि पटवर्धन को अपना आदर्श मानते हैं। अपने विचारधारा के लोगों के साथ मिलकर चापेकर बंधुओं ने अपनी सेना बना ली थी ,बाकायदा उनको सैन्य शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया था। जो भी प्रशिक्षण ले रहे थे उनके अंदर देश को स्वतंत्र कराने का जज्बा पैदा हो गया था।
उधर चार्ल्स रैंड का गन्दा व्यवहार देखकर चापेकर भाइयों ने उसे गोली से उड़ाने कि योजना पहले से बना राखी थी। वह दिन भी आ गया जब चार्ल्स रैंड सायंकाल बग्घी में बैठकर गवर्नर हाउस जा रहे थे , रास्ते में दामोदर चापेकर ने बग्घी के पिछले पायदान पर खड़े होकर अंदर बैठे चार्ल्स रैंड पर गोली चला दी , रैंड तीन दिन बाद अस्पताल में चल बसा और उनका बदला पूरा हो गया। पूना की जनता ने चापेकर बंधुओं के जयकार के नारे लगाए।
चार्ल्स रैंड के हत्यारों का पता लगाने के लिए सुपरिंटेंडेंट सी आई डी मिस्टर बुइन को जिम्मेदारी सौंपी गयी । उसने हत्यारों को पकड़वाने के लिए 20,000 रूपये का इनाम देने कि घोषणा की। उस समय 20,000 रूपये बहुत होता था , इनाम के लालची गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंद्र द्रविड़ दोनों भाइयों ने पुलिस को भेद दे दिया की यह कार्य चापेकर बंधुओं का हो सकता है। दामोदर चापेकर गिरफ्तार कर लिया गया और छोटे भाई बालकृष्ण फरार हो गए। सेशन जज की अदालत में मुकदमा चला दामोदर चापेकर को फाँसी की सजा दे दी । दामोदर जी ने बाल गंगाधर तिलक जी से गीता की प्रति मांगी थी। तिलक जी ने अपने हस्ताक्षर करके दामोदर जी को भेंट की थी।
18 अप्रैल , 1898 को दामोदर चापेकर भोर में सब नित्यकर्म से निवृत होकर गीता का पाठ कर समय से फांसी के लिए तैयार हो गए। दामोदर चापेकर जी का जन्म 21 जून , 1869 को चिंचवड़ (पूना ) में हुआ, उनकी उम्र तब करीब 28 या 29 साल की रही होगी। फांसी पर चढ़ते समय वह गीता दामोदर जी के पास थी। उधर बालकृष्ण जी पकडे नहीं जाते , उनके सेज रिश्तेदारों को पुलिस द्वारा सताया जा रहा था , तो बालकृष्ण जी ने स्वयं ही पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। तीसरे भाई वासुदेव चापेकर को पता चला कि भाई बालकृष्ण ने आत्मसमर्पण कर दिया है, उसे भी फांसी होगी। वासुदेव चापेकर जी ने महादेव राणाडे के साथ मिलकर योजना बनाई , जिन दोनों भाइयों ने ( गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंद्र द्रविड़) लालच में आकर गद्दारी की है। उनका भी खेल खत्म कर दिया जाए।
08 फरवरी, 1899 को दोनों भाई (गणेश और रामचंद्र ) अपने साथियों के साथ ताश खेल रहे थे। महादेव राणाडे ने पंजाबी लहजे में आवाज लगाईं सुपरिंटेंडेंट साहब ने तुरंत थाने में बुलाया है। वासुदेव चापेकर और महादेव राणाडे छुपकर खड़े हो गए। जैसे ही दोनों भाई जाने के लिए निकले , वासुदेव और राणाडे ने उनपर गोलियाँ चला दी। गणेशशंकर की वहीँ मृत्यु हो गयी और रामचंद्र की अस्पताल में मृत्यु हो गयी, उनहोंने वहीँ पर बोला हमने अपना बदला ले लिया है, और पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। तब इनपर मुकदमा चला , तीनों को ( बालकृष्ण जिसने पहले ही आत्मसमर्पण कर दिया था ) ,वासुदेव चापेकर को 08 मई , 1899 , महादेव राणाडे को 10 मई,1899 और बालकृष्ण चापेकर को 12 मई, 1899 को फाँसी यरवदा जेल , पूना में दे दी गयी। छोटे बेटे (वासुदेव) को जब फाँसी लगी थी ,फाँसी के समय उनका नारा था – भारत हमारा है , अंग्रेजों को अपना शासक नहीं मानते।
इस बलिदान से उनकी माँ के प्रति (जो खुद एक क्रांतिकारी महिला थी ) देश में सहानुभूति की लहर दौड़ जाना स्वाभाविक था। इस लहर से विवेकानंद जी की पट शिष्या सिस्टर निवेदिता भी अछूती नहीं रही । वह भी उन बच्चों की माँ से मिलने पूना उनके घर व्याकुल माँ को सांत्वना देने पहुँच गयी। सिस्टर निवेदिता ने सोचा माँ बच्चों के लिए विलाप कर रही होगी। वहां तो चापेकर बंधुओं की माँ ने थाली में दीया जलाकर निवेदिता की आरती उतारकर बड़े सम्मान के साथ अंदर ले गई। सिस्टर निवेदिता ने देखा माँ के मुखमण्डल पर अपूर्व तेज है। सिस्टर निवेदिता ने सांत्वना देना भूल गई , कुछ क्षण बच्चों की माँ को देखती रह गई । उनकी समझ नहीं आया और माँ के चरण छूकर स्वयं को धन्य माना , उलटे सांत्वना लेकर लौटी । धन्य है ऐसी माँ जिसने ऐसे सपूतों को जन्म दिया। ऐसी माँ को बार – बार प्रणाम।
दीवान सुशील पुरी -उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष-‘‘शहीद स्मृति समारोह समिति”
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